पृष्ठ:कामायनी.djvu/२४

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कब तक और अकेले ? कह दो हे मेरे जीवन बोलो ?
किसे सुनाऊँ कथा- कहो मत, अपनी निधि न व्यर्थ खोलो।।"

"तम के सुंदरतम रहस्य, हे कांति-किरण-रंजित तारा !
व्यथित विश्व के सात्विक शीतल बिंदु, भरे नव रस सारा।
आतप-तापित जीवन-सुख की” शांतिमयी छाया के देश ,
हे अनंत की गणना ! देते तुम कितना मधुमय संदेश !
आह शून्यते ! चुप होने में तू क्यों इतनी चतुर हुई ?
इंद्रजाल-जननी! रजनी तू क्यों अब इतनी मधुर हुई ?'

"जब कामना सिंधु तट आई ले संध्या का तारा-दीप ,
फाड़ सुनहली साड़ी उसकी तू हँसती क्यों अरी प्रतीप ?
इस अनंत काले शासन का वह जब उच्छृंखल इतिहास ,
आँसू औ’ तम घोल लिख रही तू सहसा करती मृदु हास ।
विश्व कमल की मृदुल मधुकरी रजनी तू किस कोने से---
आती चूम-चूम चल जाती पढ़ी हुई किस टोने से।
किस दिगंत रेखा में इतनी संचित कर सिसकी-सी साँस ,
यों समीर मिस हांफ रही-सी चली जा रही किसके पास ।
विकल खिलखिलाती है क्यों तू ? इतनी हँसी न व्यर्थ बिखेर,
तुहिन कणों, फेनिल लहरों में, मच जावेगी फिर अंधेर।
घूँघट उठा देख मुसक्याती किसे ठिठकती-सी आती ;
विजन गगत में किसी भूल-सी किसको स्मृति-पथ में लाती।
रजत-कुसुम के नव पराग-सी उड़ा न दे तू इतनी धूल---
इस ज्योत्स्ना की, अरी बावली तू इसमें जावेगी भूल।
पगली ! हाँ सम्हाल ले, कैसे छूट पड़ा तेरा अंचल ?
देख, बिखरती है मणिराजी—अरी उठा बेसुध चंचल।
फटा हुआ था नील’ वसन क्या ओ यौवन की मतवाली !
देख, अंकिचन जगत लूटता तेरी छवि भोली-भाली !

12 / कामायनी