पृष्ठ:कामायनी.djvu/२८

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लगा कहने आगंतुक व्यक्ति मिटाता उत्कंठा सविशेष,
दे रहा हो कोकिल सानंद सुमन को ज्यों मधुमय संदेश---

भरा था मन में नव उत्साह सीख ललित कला का ज्ञान,
इधर रह गंधर्वों के देश, पिता की हूं प्यारी संतान।
घूमने का मेरा अभ्यास बढ़ा था मुक्त-व्योम-तल नित्य,
कुतूहल खोज रहा था, व्यस्त[१] हृदय-सत्ता का सुंदर सत्य।
दृष्टि जब जाती हिमगिरि ओर प्रश्न करता मन अधिक अधीर,
धरा की यह सिकुड़न भयभीत आाह, कैसी है? क्या है पीर?
मधुरिमा में अपनी ही मौन एक सोया संदेश महान,
सजग हो करता था संकेत, चेतना मचल उठी अनजान।
बढ़ा मन और चले ये पैर, शैल-मालाओं का शृंगार,
आँख की भूख मिटी यह देख आह कितना सुंदर संभार!
एक दिन सहसा सिंधु अपार लगा टकराने नग तल क्षुब्ध,
अकेला यह जीवन निरुपाय आज तक घूम रहा विश्रब्ध।
यहाँ देखा कुछ बलि का अन्न, भूत-हित-रत किसका यह दान!
इधर कोई है अभी सजीव, हुआ ऐसा मन में अनुमान।
तपस्वी ! क्यों इतने हो क्लांत? वेदना का यह कैसा वेग?
आह ! तुम कितने अधिक हताश—बताओ यह कैसा उद्वेग!
हृदय में क्या है नहीं अधीर—लालसा जीवन की निश्शेष?
कर रहा वंचित कहीं न त्याग तुम्हें, मन में धर सुंदर वेश!
दुःख के डर से तुम अज्ञात जटिलताओं का कर अनुमान,
काम से झिझक रहे हो आज, भविष्यत् से बनकर अनजान!
कर रही लीलामय आनंद-महाचिति सजग हुई-सी व्यक्त,
विश्व का उन्मीलन अभिराम-इसी में सब होते अनुरक्त।

16 / कामायनी

  1. व्यस्त = छिन्न : द्रष्टव्य-वृत्रो अशयदव्यस्त:-ऋगवेद 1-2-7, सायण ने
    व्यस्त के भाष्य में कहा है, 'व्यस्त: विविधं क्षिप्तं'।