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पृष्ठ:कामायनी.djvu/५२

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और सत्य । यह एक शब्द तू कितना गहन हुआ है ?
मेधा के क्रीड़ा-पंजर का पाला हुआ सुआ है।
सब बातों में खोज तुम्हारी रट-सी लगी हुई है ,
किन्तु स्पर्श से तर्क-करों के बनता 'छुईमुई' है।
असुर पुरोहित उस विप्लव से बच कर भटक रहे थे ,
वे किलात--आकुलि थे--जिनने कष्ट अनेक सहे थे।
देखदेख कर मनु का पशु, जो व्याकुल चंचल रहती--
उनकी आमिष-लोलुप-रसना आंखों से कुछ कहती।
'क्यों किलात ! खाते-खाते तृण और कहाँ तक जीऊँ,
कब तक मैं देखूँ जीवित पशु घूँट लहू का पीऊँ !
क्या कोई इसका उपाय ही नहीं कि इसको खाऊँ ?
बहुत दिनों पर एक बार तो सुख की बीन बजाऊँ।
आकुलि ने तब कहा- 'देखते नहीं, साथ में उसके
एक मृदुलता की, ममता की छाया रहती हँस के।
अंधकार को दूर भगाती वह आलोक किरन-सी ,
मेरी माया बिंध जाती है जिससे हलके घन-सी ।
तो भी चलो आज कुछ करके तब मैं स्वस्थ रहूंगा ,
या जो भी आयेंगे सुख-दुःख उनको सहज सहूंगा।
यों ही दोनों कर विचार उस कुंज द्वार पर आये ,
जहाँ सोचते थे मनु बैठे मन से ध्यान लगाये।

"कर्म-यज्ञ से जीवन के सपनों का स्वर्ग मिलेगा ,
इसी विपिन में मानस की आशा का कुसुम खिलेगा।
किन्तु बनेगा कौन पुरोहित ? अब यह प्रश्न नया है ,
किस विधान से करुँ यज्ञ यह पथ किस ओर गया है ।
श्रद्धा ! पुण्य-प्राप्य है मेरी वह अनंत अभिलाषा ,
फिर इस निर्जन में खोजे अब किसको मेरी आशा !

कहा असुर मित्रों ने अपना मुख गंभीर बनाये--
"जिनके लिए यज्ञ होगा हम उनके भेजे आये।

40 / कामायनी