देवों को अर्पित मधु-मिश्रित सोम, अधर से छू लो,
मादकता दोला पर प्रेयसी! आओ मिलकर झूलो।"
श्रद्धा जाग रही थी तब भी छाई थी मादकता ,
मधुर-भाव उसके तन-मन में अपना हो रस छकता ,
बोली एक सहज मुद्रा से यह तुम क्या कहते हो ,
आज अभी तो किसी भाव की धारा में बहते हो।
कल ही यदि परिवर्तन होगा तो फिर कौन बचेगा !
क्या जाने कोई साथी बन नूतन यज्ञ रचेगा।
और किसी की फिर बलि होगी किसी देव के नाते,
कितना धोखा ! उससे तो हम अपना ही सुख पाते।
ये प्राणी जो बचे हुए हैं इस अचला जगती के,
उनके कुछ अधिकार नहीं क्या वे सब ही हैं फीके ?
मनु ! क्या यही तुम्हारी होगी उज्ज्वल नव मानवता।
जिसमें सब कुछ ले लेना हो हंत ! बची क्या शवता।"
तुच्छ नहीं है अपना सुख भी श्रद्धे ! वह भी कुछ है,
दो दिन के इस जीवन का तो वही चरम सब कुछ है।
इंद्रिय की अभिलाषा जितनी सतत सफलता पावे,
जहां हृदय की तृप्ति-विलासिनि मधुर-मधुर कुछ गावे।
रोम-हर्ष हो उस ज्योत्स्ना में मृदु मुसक्यान खिले तो,
आशाओं पर श्वास निछावर होकर गले मिले तो ।
विश्व-माधुरी जिसके सम्मुख मुकुर बनी रहती हो,
वह अपना सुख-स्वर्ग नहीं है ! यह तुम क्या कहती हो ?
जिसे खोजता फिरता मैं इस हिमगिरि के अंचल में ,
वही अभाव स्वर्ग बन हंसता इस जीवन चंचल में।
वर्तमान जीवन के सुख से योग जहाँ होता है,
छली-अदृष्ट अभाव बना क्यों वहीं प्रकट होता है।
कामायनी /46