पृष्ठ:कामायनी.djvu/७५

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बिखरी अलकें ज्यों तर्क जाल
वह विश्व मुकुट सा उज्ज्वलतम शशिखंड सदृश था स्पष्ट भाल
दो पद्म-पलाश चषक-से दृग देते अनुराग विराग ढाल
गुंजरित मधुप से मुकुल सदृश वह आनन जिसमें भरा गान
वक्षस्थल पर एकत्र धरे संसृति के सब विज्ञान ज्ञान
था एक हाथ में कर्म-कलश वसुधा-जीवनरस-सार लिये
दूसरा विचारों के नभ को या मधुर अभय अवलंब दिये
त्रिवली थी त्रिगुण-तरंगमयी, आलोकवसन लिपटा अराल
चरणों में थी गति भरी ताल ।

नीरव थी प्राणों की पुकार
मूर्च्छित जीवन-सर निस्तरंग नीहार घिर रहा था अपार
निस्तब्ध अलस बन कर सोयी चलती न रही चंचल बयार
पीता मन मुकुलित कंज आप अपनी मधु बूँदें मधुर मौन
निस्वन दिगंत में रहे रुद्ध सहसा बोले मनु "अरे कौन--
आलोकमयी स्मिति-चेतनता आयी यह हेमवती छाया"
तंद्रा के स्वप्न तिरोहित थे बिखरी केवल उजली माया
वह स्पर्श-दुलार-पुलक से भर बीते युग को उठता पुकार
वीचियाँ नाचतीं बार-बार ।

प्रतिभा प्रसन्न-मुख सहज खोल
वह बोली —"मैं हूँ इड़ा, कहो तुम कौन यहां पर रहे डोल !"
नासिका नुकीली के पतले पुट फरक रहे कर स्मित अमोल
"मनु मेरा नाम सुनो वाले ! मैं विश्व पथिक सह रहा क्लेश ।"
"स्वागत ! देख रहे हो तुम यह उजड़ा सारस्वत प्रदेश
भौतिक हलचल से यह चंचल हो उठा देश ही था मेरा
इसमें अब तक हूँ पड़ी इसी आशा से आये दिन मेरा ।"
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मैं तो आया हूँ—देवि बता दो जीवन का क्या सहज मोल
भव के भविष्य का द्वार खोल!

कामायनी / 63