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पृष्ठ:कामायनी.djvu/९४

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रूधिर भरी वेदियाँ भयकरी उनमें ज्वाला ,
विनयन का उपचार तुम्हीं से सीख निकाला ।
चार वर्ण बन गये बँटा श्रम उनका अपना ,
शस्त्र यंत्र बन चले, न देखा जिनका सपना ।
आज शक्ति का खेल खेलने में आतुर नर ,
प्रकृति संग संघर्ष निरंतर अब कैसा डर ?
बाधा नियमों की न पास में अब आने दो ,
इस हताश जीवन में क्षण-सुख मिल जाने दो ।

राष्ट्र-स्वामिनी, यह लो सब कुछ वैभव अपना ,
केवल तुम को सब उपाय से कह लूँ अपना ।
यह सारस्वत देश या कि फिर ध्वंस हुआ सा
समझो, तुम हो अग्नि और यह सभी धुआँ सा ।

मैंने जो मनु, किया उसे मत यों कह भूलो ,
तुमको जितना मिला उसी में यों मत फूलो ।
प्रकृति संग संघर्ष सिखाया तुमको मैंने ,
तुमको केंद्र बनाकर अनहित किया न मैंने !
मैंने इस बिखरी-विभूति पर तुमको स्वामी ,
सहज बनाया, तुम अब जिसके अंतर्यामी ।
किंतु आज अपराध हमारा अलग खड़ा है ,
हाँ में हाँ न मिलाऊँ तो अपराध बड़ा है ।
मनु देखो यह भ्रांत निशा अब बीत रही है ,
प्राची में नव-उषा तमस को जीत रही है ।
अभी समय है मुझ पर कुछ विश्वास करो तो ।
बनती है सब बात तनिक तुम धैर्य धरो तो ।"

और एक क्षण वह, प्रमाद का फिर से आया ,
इधर इड़ा ने द्वार ओर निज पैर बढाया ।

82 / कामायनी