पृष्ठ:कामायनी.djvu/९६

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अत्याचार प्रकृति-कृत हम सब जो सहते हैं ,
करते कुछ प्रतिकार न अब हम चुप रहते हैं ।

आज न पशु हैं हम, या गूँगे काननचारी,
यह उपकृति क्या भूल गये तुम आज हमारी "
वे बोले सक्रोध मानसिक भीषण दुख से,
"देखो पाप पुकार उठा अपने ही मुख से !

तुमने योगक्षेम से अधिक संचय वाला ,
लोभ सिखा कर इस विचार-संकट में डाला।
हम संवेदनशील हो चले यही मिला सुख ;
कष्ट समझने लगे बना कर निज कृत्रिम दुःख !
प्रकृत-शक्ति तुमने यंत्रों से सब की छीनी !
शोषण कर जीवनी बना दी जर्जर झीनी !
और इड़ा पर यह क्या अत्याचार किया है ?
इसीलिए तू हम सब के बल यहाँ जिया है ?
आज बंदिनी मेरी रानी इड़ा यहाँ है ?
ओ यायावर ! अब तेरा निस्तार कहां है ?"

"तो फिर मैं हूँ आज अकेला जीवन रण में ,
प्रकृति और उसके पुतलों के दल भीषण में ।
आज साहसिक का पौरुष निज तन पर लेखें ,
राजदंड को वज्र बना सा सचमुच देखें।"
यों कह मनु ने अपना भीषण अस्त्र सम्हाला ,
देव 'आग' ने उगली त्यों ही अपनी ज्वाला।
छूट चले नाराच धनुष से तीक्ष्ण नुकीले,
टूट रहे नभ-धूमकेतु अति नीले-पीले।
अंधड़ था बढ़ रहा, प्रजा दल सा झुंझलाता ,
रण वर्षा में शस्त्रों सा बिजली चमकाता।

84 / कामायनी