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[कायाकल्प
 

सामने चुपचाप खड़े मानो किसी मृतक की दाह क्रिया कर रहे हों। बाजार लुटा, गोलियाँ चलीं, आदमी मक्खियों की तरह मारे गये, पर राजा साहब मण्डप के सामने ही खड़े रहे। उन्हें अपनी सारी मनोकामनाएँ अग्नि राशि में भस्म होती हुई मालूम होती थीं।

अँधेरा छा गया था। घायलों के कराहने की आवाजें आ रही थीं। चक्रधर और उनके साथ के युवक उन्हें सावधानी से उठा उठाकर एक वृक्ष के नीचे जमा कर रहे थे। कई आदमी तो उठाते-ही-उठाते सुरलोक सिधारे। कुछ सेवक उन्हें ले जाने की फिक्र करने लगे। कुछ लोग शेष घायलों की देख-भाल में लगे। रियासत का डाक्टर सज्जन मनुष्य था। यहाँ से सन्देशा जाते ही आ पहुँचा। उसकी सहायता ने बड़ा काम किया। आकाश पर काली घटा छायी हुई थी। चारों तरफ अँधेरा था। तिलक मण्डप की आग भी बुझ चुकी थी। उस अंधकार में ये लोग लालटेनें लिये घायलों को अस्पताल ले जा रहे थे।

एकाएक कई सिपाहियो ने आकर चक्रधर को पकड़ लिया और अँगरेजी कैम्प की तरफ ले चले। पूछा, तो मालूम हुआ कि जिम साहब का यह हुक्म है।

चक्रधर ने सोचा—मैंने ऐसा कोई अपराध तो नहीं किया है, जिसका यह दण्ड हो। फिर यह पकड़ धकड़ क्यों? सम्भव है, मुझसे कुछ पूछने के लिए बुलाया हो और ये मूर्ख सिपाही उसका आशय न समझकर मुझे यों पकड़े लिये जाते हों। यह सोचते हुए वह मिस्टर जिम के खेमे में दाखिल हुए।

देखा, तो वहाँ कचहरी लगी हुई है। सशस्त्र पुलिस के सिपाही, जिन्हें अब लूट से फुरसत मिल चुकी थी, द्वार पर संगीने चढ़ाये खड़े थे। अन्दर मिस्टर जिम और मिस्टर सिम रौद्र रूप धारण किये सिगार पी रहे थे, मानों क्रोधाग्नि मुँह से निकल रहो हो। राजा साहब मिस्टर जिम के बगल में बैठे थे। दीवान साहब क्रोध से आँखे लाल किये मेज पर हाथ रखे कुछ कह रहे थे और मुंशी वज्रधर हाथ बाँधे एक कोने में खड़े थे।

चक्रधर को देखते ही मिस्टर जिम ने कहा—राजा साहब कहता है कि यह सब तुम्हारी शरारत है। तुम और तुम्हारा साथी लोग बहुत दिनों से रियासत के आदमियों को भड़का रहा है, और आज भी तुम न आता, तो यह दंगा न मचता।

चक्रधर आवेश में आकर बोले—अगर राजा साहब, आपका ऐसा विचार है, तो इसका मुझे दुःख है। हम लोग जनता में जागृति अवश्य फैलाते हैं, उनमें शिक्षा का प्रचार करते हैं, उन्हें स्वार्थान्ध अमलों के फन्दों से बचाने का उपाय करते हैं, और उन्हें अपने आत्म-सम्मान की रक्षा करने का उपदेश देते हैं। हम चाहते हैं कि वे मनुष्य बनें और मनुष्यो की भाँति संसार में रहें। वे स्वार्थ के दास बनकर कर्मचारियों की खुशामद न करें, भयवश अपमान और अत्याचार न सहें। अगर इसे कोई भड़काना समझता है, तो समझे। हम तो इसे अपना कर्तव्य समझते हैं।

जिम—तुम्हारे उपदेश का यह नतीजा देखकर कौन कह सकता है कि तुम उन्हें नहीं भड़काता?