सर होता है। इसने प्रजा में असन्तोष की आग भड़कायी। दो-चार दिन आधे ही पेट खाकर रह जाते, तो क्या मजदूरों की जान निकल जाती अपने घर ही पर उन्हें कौन दोनों वक्त पकवान मिलता है। जब बारहों मास एक वक्त आधे पेट खाकर रहते हैं, तो यहाँ रसद के लिए दगा कर बैठना साफ बतला रहा है कि यह दूसरों का मन्त्र था। बाप तो तलुवे सहलाता फिरता है और आप परोपकारी बने फिरते हैं। पाँच साल तक चक्की न पिसवायी, तो नाम नहीं!
राज-भवन में सन्नाटा छाया हुआ था। रोहिणी ने तो जन्माष्टमी के दिन से ही राजा साहब से बोलना चालना छोड़ दिया था। यों पड़ी रहती थी, जैसे कोई चिड़िया पिंजरे में| वसुमती को अपने पूजा-पाठ से फुरसत न थी। अब उसे राम और कृष्ण दोनों ही की पूजा-अर्चना करनी पड़ती थी। केवल रामप्रिया घबराती हुई इधर-उधर दौड़ रही थी। कभी चुपके चुपके कोप-भवन के द्वार तक जाती, कभी खिड़की से झाँकती; पर राजा साहब की त्योरियाँ देखकर उलटे पाँव लौट आती। डरती थी कि कहीं वह कुछ खा न लें, कही भाग न जायँ। निर्बल क्रोध हो तो वैराग्य है।
वह इसी चिन्ता में विकल थी कि मनोरमा आकर सामने खड़ी हो गयी। उसकी दोनों आँखें बीरबहूटी हो रही थीं, भँवे चढ़ी हुईं। मानो किसी गुण्डे ने सती को छेड़ दिया हो।
रामप्रिया ने पूछा—कहाँ थी, मनोरमा?
मनोरमा—ऊपर ही तो थी। राजा साहब कहाँ हैं?
रामप्रिया ने मनोरमा के मुख की ओर तीव्र दृष्टि से देखा। हृदय आँखों में रो रहा था। बोली—क्या करोगी पूछकर।
मनोरमा—उनसे कुछ कहना चाहती हूँ।
रामप्रिया—कहीं उनके सामने जाना मत। कोप-भवन में हैं। मैं तो खुद उनके सामने जाते डरती हूँ।
मनोरमा—आप बतला तो दें।
रामप्रिया नहीं, मैं न बतलाऊँगी। कौन जानता है, इस वक्त उनके हृदय पर क्या बीत रही है। खून का घूँट पी रहे होंगे। सुनती हूँ, तुम्हारे गुरुजी ही की यह सारी करामात है। देखने में तो बड़े ही सज्जन मालूम होते हैं; पर हैं एक छटे हुए।
मनोरमा तीर की भाँति कमरे से निकलकर वसुमती के पास जा पहुँची। वसुमनी अभी स्नान करके आयी ही थी और पूजा करने जा रही थी कि मनोरमा को सामने देखकर चौंक पड़ी। मनोरमा ने पूछा—आप जानती हैं, राजा साहब कहाँ हैं?
वतुमती ने रुखाई से कहा—होंगे जहाँ उनकी इच्छा होगी। मैं तो पूछने भी न गयी। जैसे राम राधा से, वैसे ही राधा राम से!
मनोरमा—आपको मालूम नहीं?
वसुमती—मैं होती कौन हूँ? न सलाह, न बात में। बेगानों की तरह घर में