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[कायाकल्प
 

का क्रोध न सह सकती थी। यह भी जानती थी कि दीवान साहब के दिल में ऐसा खयाल आना असम्भव नहीं है। मनोरमा के रंग ढंग से भी उसे मालूम हो गया था कि वह राजा साहब को दुत्कारना नहीं चाहती। जब वे लोग राजी हैं, तो मै क्यों बोलूँ। कहीं पीछे से कोई आफत आयी, तो मेरे ही सिर के बाल नोचे जायँगे। मुंशीजी ने भले चेता दिया, नहीं तो मुझसे बिना बोले कब रहा जाता।

अभी उसने कुछ जवाब न दिया था कि दीवान साहब स्नान करके लौट आये। उन्हें देखते ही लौंगी ने इशारे से बुलाया और अपने कमरे में ले जाकर उनके कान में बोली—राजा साहब ने मनोरमा के ब्याह के लिए संदेशा भेजा है।

ठाकुर—तुम्हारी क्या सलाह है?

लौंगी—जो तुम्हारी इच्छा हो करो, मेरी सलाह क्या पूछते हो?

ठाकुर—यही मेरी बात का जवाब है। मुझे अपनी इच्छा से करना होता, तो पूछता ही क्यों?

लौंगी—मेरी बात मानोगे तो हई नहीं, पूछने से फायदा?

ठाकुर—कोई बात बता दो, जो मैंने तुम्हारी इच्छा से न की हो।

लौंगी—कोई बात भी मेरी इच्छा से नहीं होती। एक बात हो, तो बताऊँ। तुम्हीं कोई बात बता दो, जो मेरी इच्छा से हुई हो। तुम करते हो अपने ही मन को। हाँ, मैं अपना धर्म समझ के भूँक लेती हूँ।

ठाकुर-तुम्हारी इन्हीं बातों पर मेरा मारने को जी चाहता है। तू क्या चाहती है कि मैं अपनी जवान कटवा लूँ?

लौंगी—उसकी परीच्छा तो अभी हुई जाती है। तब पूछती हूँ कि मेरी इच्छा से हो रहा है कि बिना इच्छा के। मैं कहती हूँ, मुझे यह विवाह एक आँख नहीं भाता। मानते हो?

ठाकुर—हाँ, मानता हूँ! जाकर मुंशीजी से कहे देता हूँ।

लौंगी—मगर राजा साहब बुरा मान जायें, तो?

ठाकुर—कुछ परवा नहीं।

लौंगी—नौकरी जाती रहे, तो?

ठाकुर—कुछ परवा नही। ईश्वर का दिया बहुत है, और न भी हो तो क्या? एक बात निश्चय कर ली, तो उसे करके छोड़ेंगे, चाहे उसके पीछे प्राण ही क्योंन चले जायँ।

लौंगी—मेरे सिर के बाल तो न नोचने लगोगे कि तूने ही मुझे चौपट किया। अगर ऐसा करना हो, तो मैं साफ कहती हूँ, मंजूर कर लो। मुझे बाल नुचवाने का बूता नहीं है।

ठाकुर—क्या मुझे बिलकुल गया गुजरा समझती है। मैं जरा झगड़े से बचता हूँ, तो तूने समझ लिया कि इनमें कुछ दम ही नहीं है। लत्ते-लत्ते उड़ जाऊँ, पर विशाल-