पृष्ठ:कायाकल्प.djvu/१४८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१६२
[कायाकल्प
 

मतवाली हो रही थीं।

मिस्टर जिम को यह खबर मिली, तो तिलमिला उठे, मानो किसी रईस ने एक भिखारी को पैसे जमीन पर फेंककर अपनी राह ली हो। कीर्ति का इच्छुक जब दान करता है, तो चाहता है कि नाम हो, यश मिले। दान का अपमान उससे नहीं सहा जाता। जिम ने समझा था कि चक्रधर की आत्मा का मैंने दमन कर दिया। अब उसे मालूम हुआ कि मैं धोखे में था। वह आत्मा अभी तक मस्तक उठाये उसकी ओर ताक रही थी। जिम ने मन में ठान लिया था कि मै उसे कुचलकर छोड़ूँगा।

चक्रधर दो महीने अस्पताल में पड़े रहे। दवा दर्पन तो जैसी हुई, वही जानते होंगे, लेकिन जनता की दुआओं में जरूर असर था। हजारों आदमी नित्य उनके लिए ईश्वर से प्रार्थना करते थे और मनोरमा को तो दान, व्रत और तप के सिवा और कोई काम न था। जिन बातों को वह पहले ढकोसला समझती थी, उन्हीं बातों में अब उसकी आत्मा को शान्ति मिलती थी। पहली बार उसे प्रार्थना शक्ति का विश्वास हुआ। कमजोरी ही में हम लकड़ी का सहारा लेते हैं।

चक्रधर तो अस्पताल में पड़े थे, इधर उन पर नया अभियोग चलाने की तैयारियाँ हो रही थीं। ज्योंही वह चलने-फिरने लगे, उन पर मुकद्दमा चलने लगा। जेल के भीतर ही इजलास होने लगा। ठाकुर गुरुसेवकसिंह आजकल डिप्टी मैजिस्ट्रट थे। उन्हीं को यह मुकद्दमा सिपुर्द किया गया।

हमारे ठाकुर साहब बड़े जोशीले आदमी थे। यह जितने जोश से किसानों का संगठन करते थे, अब उतने ही जोश से कैदियों को सजाएँ भी देते थे। पहले उन्होंने निश्चय किया था कि सेवा-कार्य में ही अपना जीवन बिता दूँगा, लेकिन चक्रधर की दशा देखकर आँखें खुल गयीं। समझ गये कि इन परिस्थितियों में सेवा कार्य टेढ़ी खीर है। जीवन का उद्देश्य यही तो नहीं है कि हमेशा एक पैर जेल में रहे, हमेशा प्राण सूली पर रहे, खुफिया पुलिस हमेशा ताक में बैठी रहे, भगवद्गीता का पाठ करना मुश्किल हो जाय। यह तो न स्वार्थ है, न परमार्थ, केवल आग में कूदना है, तलवार पर गरदन रखना है। सेवा कार्य को दूर से सलाम किया और सरकार के सेवक बन बैठे। खानदान अच्छा था ही, सिफारिश भी काफी थी, जगह मिलने में कोई कठिनाई न हुई। अब वह बड़े ठाट से रहते थे। रहन-सहन भी बदल डाला, खान-पान भी बदल डाला। उस समाज में घुल-मिल गये, जिसकी वाणी में, वेश में, व्यवहार में पराधीनता का चोखा रङ्ग चढ़ा होता है। उन्हें लोग अब 'साहब' कहते हैं। 'साहब' हैं भी पूरे 'साहब', बल्कि 'साहबों' से भी दो अंगुल ऊँचे। किसी को छोड़ना तो जानते ही नहीं। कानून की मंशा चाहे कुछ हो, कड़ी-से-कड़ी सजा देना उनका काम है। उनका नाम सुनकर बदमाशों की नानी मर जाती है। विधाताओं को उन पर जितना विश्वास है, उतना और किसी हाकिम पर नहीं है, इसी लिए यह मुकदमा उनके इजलास में भेजा गया है।