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फायाकल्प ] १६९ क्या यही है कि राजा साहब से क्या वह प्रेम को छोड़कर धन था । वह वार वार सोचती थी, इस स्वप्न का आशय विवाह करके वह सचमुच अपना भाग्य पलट रही है ? के पीछे दौड़ी जा रही है ? वह प्रेम कहाँ है, जिसे उसने छोड़ दिया है । उसने तो उसे पाया ही नहीं । वह जानती है कि उसे कहाँ पा सकती है; पर पाये कैसे ? वह वस्तु तो उसके हाथ से निकल गयी । वह मन में कहने लगी- बाबूजी, तुमने कभी मेरी श्रोर श्राँख उठाकर देखा है ? नहीं, मुझे इसकी लालसा रद्द हो गयी । तुम दूसरों के लिए नरना जानते हो, अपने लिए जीना भी नहीं जानते । तुमने एक बार मुझे इशारा भी कर दिया होता, तो मै दौड़कर तुम्हारे चरणों में लिपट नाती । इस धन-दौलत पर लात मार देती, इस बन्धन को कच्चे धागे की भाँति तोड़ देती; लेकिन तुम इतने विद्वान् होकर भी इतने सरल हृदय हो ! इतने अनुरक्त होकर भी इतने विरक्त ! तुम समझते हो, मैं तुम्हारे मन का हाल नहीं जानती ? मैं सब जानती हूँ, एक एक अक्षर जानती हूँ, लेकिन क्या करूँ? मैंने अपने मन के भाव उससे अधिक प्रकट कर दिये थे, जितना मेरे लिए उचित था । मैंने वेशर्मी तक की; लेकिन तुमने मुझे न समझा, या समझने की चेष्टा ही न की । व तो भाग्य मुझे उसी ओर लिये जा रहा है, जिधर मेरी चिता बनी हुई है । उसी चिता पर बैठने जाती हूँ । यही हृदय- दाह मेरी चिता होगी और यही स्वप्न सन्देश मेरे जीवन का आधार होगा। प्रेम से मैं वंचित हो गयी और यत्र मुझे सेवा ही से अपना जीवन सफल करना होगा। यह स्वप्न नहीं, ग्राकाशवाणी है । अभागिनी इससे अधिक और क्या मिलापा रख सकती है ? यही सोचते-सोचते वह लेटे-लेटे यह गीत गाने लगी- करूँ क्या, प्रेम-समुद्र स्नेह सिन्धु में मग्न हुई मैं, हाथ न श्राये तुम जीवन धन, करूँ क्या, प्रेम-समुद्र पार ! लहरें रही हिलोर, पाया कहीं न छोर ! पार ! झूम-झूमकर जब इठलायो सुरभित स्निग्ध समोर, नभ मण्डल मे लगा विचरने मेरा हृदय अधीर । करूँ क्या, प्रेम- समुद्र पार !
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हुक्काम के इशारों पर नाचनेवाले गुरुसेवकसिंह ने जब चक्रधर को जेल के दंगे के इलजाम से बरी कर दिया, तो अधिकारी मण्डल में सनसनी - सी फैल गयी । गुरुसेवक से ऐसे फैसले की किसी को आशा न थी । फैसला क्या था, मान-पत्र था, जिसका एक- एक शब्द वात्सल्य के रस में शराबोर था। जनता मे धूम मच गयी । ऐसे न्यायप्रिय और सत्यवादी प्राणी विरले ही होते हैं, सबके मुँह से यहीं बात निकलती थी । शहर के कितने ही आदमी तो गुरुसेवक के दर्शनों को आये और यह कहते हुए लौटे कि यह हाकिम नहीं, साक्षात् देवता हैं। अधिकारियों ने सोचा था, चक्रधर को ४-५ साल जेल