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कायाकल्प]
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घर में जाती है। यह बिस्तर वगैरह खोल कर रख दीजिए। यह सब सामान देखकर मेरा हृदय जाने कैसा हुआ जाता है।

चक्रधर—नहीं मनोरमा मुझे जाने दो।

मनोरमा—आप न मानेंगे?

चक्रधर—यह बात न मानूँगा।

मनोरमा—मुझे रोते देखकर भी नहीं?

मनोरमा की आँखों से आँसू गिरने लगे। चक्रधर की आँखें भी डबडबा गयीं। बोले—मनोरमा, मुझे जाने दो। मैं वादा करता हूँ कि बहुत जल्द लौट आऊँगा।

मनोरमा—अच्छी बात है, जाइए, लेकिन एक बात आपको माननी पड़ेगी। मेरी यह भेंट स्वीकार कीजिए।

यह कहकर उसने अपना हैंडबेग चक्रधर की तरफ बढ़ाया।

चक्रधर ने पूछा—इसमें क्या है?

मनोरमा—कुछ भी हो।

चक्रधर—अगर न लूँ तो?

मनोरमा—तो मै अपने हाथों से आपका बोरिया-बँधना उठाकर घर में रख आऊँगी।

चक्रधर—आपको इतना कष्ट न उठाना पड़ेगा। मैं इसे लिए लेता हूँ। शायद वहाँ भी मुझे कोई काम करने की जरूरत न पड़ेगी। इस बेग का वजन ही बतला रहा है।

मनोरमा घर में गयी, तो निर्मला बोली—माना कि नहीं, बेटी?

मनोरमा-नहीं मानते। मनाकर हार गयी।

मुंशी—जब आप के कहने से न माना, तो फिर किसके कहने से मानेगा!

ताँगा आ गया। चक्रधर और अहल्या उस पर जा बैठे, तो मनोरमा भी अपनी मोटर पर बैठकर चली गयी। घर के बाकी तीनों प्राणी द्वार पर खड़े रह गये।


२९

सार्वजनिक काम करने के लिए कहीं भी क्षेत्र की कमी नहीं, केवल मन में निःस्वार्थ-सेवा का भाव होना चाहिए। चक्रधर प्रयाग में अभी अच्छी तरह जमने भी न पाये थे कि चारों ओर से उनके लिए खींच तान होने लगी। थोड़े ही दिन में वह नेताओं की श्रेणी में आ गये। उनमें देश का अनुराग था, काम करने का उत्साह था और संगठन करने की योग्यता थी। सारे शहर में एक भी ऐसा प्राणी न था, जो उनकी भाँति निःस्पृह हो। और लोग अपना फालतू समय ही सेवा कार्य के लिए दे सकते थे, द्रव्योपार्जन उनका मुख्य उद्देश्य था। चक्रधर के लिए इस काम के सिवा और कोई फिक्र न थी। यह कोई न पूछता कि आपको कोई तकलीफ तो नहीं है? काम लेनेवाले बहुतेरे थे। सवारी करनेवाले सब थे, पर घास चारा देनेवाला कोई भी न था। उन्होंने सदर के निकास पर एक छोटा सा मकान किराये पर ले लिया था और बड़ी किफायत से गुजर करते थे। आगरे में उन्हें जितने रपये मिले थे, वे सब मुंशी वज्रधर की भेंट कर दिये

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