ले गये। बाबू यशोदानन्दन ने मेरा पालन पोषण किया।
राजा—तुम्हारी क्या उम्र होगी, बेटी?
अहल्या—चौबीसवाँ लगा है।
राजा—तुम्हें अपने घर की कुछ याद है? तुम्हारे द्वार पर किस चीज का पेड़ था।
अहल्या—शायद बरगद का पेड़ था। मुझे याद आता है कि मैं उसके गोदे चुनकर खाया करती थी।
राजा—अच्छा, तुम्हारी माता कैसी थी? कुछ याद आता है?
अहल्या—हाँ, याद क्यों नहीं आता। उनका साँवला रंग था, दुबली-पतली, लेकिन बहुत लम्बी थी। दिन-भर पान खाती रहती थी।
राजा—घर में कौन कौन लोग थे?
अहल्या—मेरी एक बुढ़िया दादी थी, जो मुझे गोद में लेकर कहानी सुनाया करती थी। एक बूढ़ा नौकर था, जिसके कन्धे पर मैं रोज सवार हुआ करती थी। द्वार पर एक बड़ा-सा घोड़ा बँधा रहता था। मेरे द्वार पर एक कुआँ था और पिछवाड़े एक बुढ़िया चमारिन का मकान था।
राजा ने सजल-नेत्र होकर कहा—बस बस, बेटी आ; तुझे छाती लगा लूँ। तू ही मेरी सुखदा है। मैं बालक को देखते ही ताड़ गया था। मेरी सुखदा मिल गयी! मेरी सुखदा मिल गयी।
चक्रधर—अभी शोर न कीजिए। सम्भव है आपको भ्रम हो रहा हो।
राजा—जरा भी नहीं, जौं-भर भी नहीं; मेरी सुखदा यही है। इसने जितनी बातें बतायीं, सभी ठीक हैं। मुझे लेश-मात्र भी सन्देह नहीं। आह! आज तेरी माता होती तो उसे कितना आनन्द होता! क्या लीला है भगवान् की! मेरी सुखदा घर-बैठे मेरी गोद में आ गयी। जरा सी गयी थी, बड़ी-सी आयी। अरे! मेरा शोक-सन्ताप हरने को एक नन्हा-मुन्ना बालक भी लायी। आओ, भैया चक्रधर, तुम्हें छाती से लगा लूँ। अब तक तुम मेरे मित्र थे, अब मेरे पुत्र हो। याद है, मैने तुम्हें जेल भिजवाया था? नोरा, ईश्वर की लीला देखी? सुखदा घर में थी, और मैं उसके नाम को रो बैठा था। अब मेरी सारी अभिलाषा पूरी हो गयी। जिस बात की आशा तक मिट गयी थी, वह आज पूरी हो गयी।
चक्रधर विमन भाव से खड़े थे, मनोरमा अंगों फूली न समाती थी। अहल्या अभी तक खड़ी रो रही थी। सहसा रोहिणी कमरे के द्वार से जाती हुई दिखायी दी। राजा साहब उसे देखते ही बाहर निकल आये और बोले—कहाँ जाती हो, रोहिणी? मेरी सुखदा मिल गयी। आओ, देखो, यह उसका लड़का है।
रोहिणी वहीं ठिठक गयी और सन्देहात्मक भाव से बोली—क्या स्वर्ग से लौट आयी है, क्या?
राजा—नही-नहीं, आगरे में थी। देखो, यह उसका लड़का है। मेरी सूरत इससे