चक्रधर ने जब देखा कि इधर से अब कोई शंका नहीं है, तो वह लपककर मुसल मानों के सामने आ पहुंचे और उच्च स्वर से बोले-हजरात, मै कुछ अर्ज करने की इजाजत चाहता हूँ।
एक आदमी-सुनो, सुनो, यही तो अभी हिन्दुओं के सामने खडा था।
दूसरा अादमी-दुश्मनों के कदम उखड़ गये । सब भागे जा रहे हैं ।
तीसरा आदमी-इसी ने शायद उन्हें समझा-बुझाकर हटा दिया है । देखो,-क्या कहता है ?
चक्रधर-अगर इस गाय की कुरबानी करना श्राप अपना मजहबी फर्ज समझते हों, तो शोक से कीजिए । मैं श्रापके मजहबी मामले में दखल नहीं दे रहा हूँ। लेकिन क्या यह लाजमी है कि इसो जगह कुरबानी की जाय ।
एक आदमी-हमारी खुशी है; जहाँ चाहेगे, कुरबानी करेंगे, तुमसे मतलब ?
चक्रधर-वेशक, मुझे बोलने का कोई हक नहीं है, लेकिन इस नाम की जो इजत मेरे दिल में है, वह मुझे बोलने के लिए मजबूर कर रही है। इसलाम ने कमी दूसरे मजहबवाला को दिलजारी नहीं की। उसने हमेशा दूसरो के जजबात का एहत-राम किया है। वगद द और रूम, स्पेन और मित्र की तारीखें उस मजहबी अाजादी को शाहिद हैं, जो इसलाम ने उन्हें अता को थीं। अगर आप हिन्दू जजगत का लिहाज करके किसी दूसरी जगह कुरबानी करें, तो यकीनन इसलाम के वकार मे फर्क न पायेगा!
एक मौलवी ने जोर देकर कहा-रेमी मीठा-मीठी बातें हमने बहुत सुनी हैं । कुरबानो यहीं होगी। जब दूसरे हमारे कार जन करते हैं, तो हम उनके जजबात का क्यो लिहाज करें?
ख्वाजा महसूद बड़े गौर से चक्रधर की बाते सुन रहे थे। मोलवी साहब की उद्दण्डता पर चिढ़कर बोले- क्या शरीयत का हुक्म है कि कुरबानी यही हो ? किसी दूसरी जगह नहीं की जा सकती ?
मौलवी साहब ने ख्वाना महमूद को तरफ अविश्वास की दृष्टि से देखकर कहा-मजहब के मामले में उलमा के सिवा पार किसी को दखल देने का मजाज नही है।
ख्याजाचुरा न मानिएगा, मोलवी साहब ! अगर दस सिपाही याकर यहाँ खड़े हो जॉय, तो चग ले झॉकने लगिएगा!
मौलवी-किसीकी मजाल है कि हमारे दीनी उभूर में मजाहमत करे।
खाजा-आपको तो अपने हलवे मांडे से काम है, जिम्मेदारो तो हमारे ऊपर आयेगो, दुकाने तो हमारी लुटेगी, श्रापके पास फटे बोरिये और फूटे बधने के सिवा ओर क्या रखा है। जब वे लोग मसलहत देखकर किनारा कर गये, ता हमे भी अपनी जिद से बाज अा जाना चाहिए। क्या आप समझते है, वे लोग यारले डर- कर भागे? हमारे दुगुने अादमी थे । अगर चढ़ पाते, तो संभलना मुश्किल हो जाता।