लिया और आबादी की ओर चला। ज्यों-ज्यों बस्ती निकट आती थी, उसके पाँव तेज होते थे। उसे एक विचित्र उत्साह हो रहा था। जिसका आशय वह स्वयं कुछ न समझ सकता था। एकाएक उसके सामने एक विशाल भवन दिखायी दिया। भवन के सामने एक छोटा-सा बाग था। वह बिजली की रोशनी से जगमगा रहा था। उस दिव्य प्रकाश में भवन की शुभ्र छटा देखकर शंखधर उछल पड़ा। उसे ज्ञात हुआ, यही उसका पुराना घर है, यहीं उसका बालापन बीता है। भवन के भीतर एक एक कमरा उसकी आँखों में फिर गया। ऐसी इच्छा हुई कि उड़कर अन्दर चला जाऊँ। बाग के द्वार पर एक चौकीदार संगीन चढ़ाये खड़ा था। शङ्खधर को अन्दर कदम रखते देखकर बोला—तुम कौन हो?
शङ्खधर ने डाँटकर कहा—चुप रहो, हम रानीजी के पास जा रहे हैं।
यह रानी कौन थी, यह क्यों उसके पास जा रहा था, और उसका रानी से कब परिचय हुआ था, यह सब शङ्खधर को कुछ याद न आता था। दरबान को उसने जो जवाब दिया था, वह भी अनायास ही उसके मुँह से निकल गया था। जैसे नशे में आदमी का अपनी चेतना पर कोई अधिकार नहीं रहता, उसकी वाणी, उसके अंग, उसकी कर्मेन्द्रियाँ उसके काबू के बाहर हो जाती हैं, वही दशा शङ्खधर की भी हो रही थी। चौकीदार उसका उत्तर सुनकर रास्ते से हट गया और शङ्खधर ने बाग में प्रवेश किया। बाग का एक एक पौदा, एक-एक क्यारी, एक-एक कुञ्ज, एक एक मूर्ति, हौज, संगमरमर का चबूतरा उसे जाना-पहचाना सा मालूम हो रहा था। वह निःशंक भाव से राज भवन में जा पहुँचा।
एक सेविका ने पूछा—तुम कौन हो?
शङ्खधर ने कहा—साधु हूँ। जाकर महारानी को सूचना दे दे।
सेविका—महारानीजी तो इस समय पूजा पर हैं। उनके पास जाने का हुक्म नहीं है।
शङ्खधर—क्या बहुत देर तक पूजा करती हैं?
सेविका—हाँ, कोई तीन बजे रात को पूजा से उठेंगी। उसी वक्त नाममात्र को पारण करेंगी और घण्टे-भर आराम करके स्नान करने चली जायँगी। फिर तीन बजे रात-तक एक क्षण के लिए भी आराम न करेंगी। यही उनका जीवन है।
शङ्खधर—बड़ी तपस्या कर रही हैं!
सेविका—अब और कैसी तपस्या होगी, महाराज? न कोई शौक है, न शृंगार है, न किसी से हँसना, न बोलना। आदमियों की सूरत से कोसों भागती हैं। रात-दिन जप-तप के सिवा और कोई काम ही नहीं। जब से महाराज का स्वर्गवास हुआ है, तभी से तपस्विनी बन गयी हैं। आप कहाँ से आये हैं और उनसे क्या काम है?
शङ्खधर—साधु-सन्तों को किसी से क्या काम? महारानी की साधु-सेवा की चर्चा सुनकर चला आया।