सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कायाकल्प.djvu/८०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
९०
[कायाकल्प
 

अभी से ईर्ष्या के मारे इनका यह हाल है, तो आगे क्या होगा। तब तो आये दिन तलवारें चलेंगी। इनकी सजा यह है कि इन्हें इसी जगह छोड़ दूँ। लड़ें जितना लड़ने का बूता हो। रोयें जितना रोने की शक्ति हो। जो रोने के लिए बनाया गया हो, उसे हँसाने की चेष्टा करना व्यर्थ है। इन्हें राज भवन ले जाकर गले का हार क्यों बनाऊँ? उस सुख को, जिसका मेरे जीवन के साथ ही अन्त हो जाना है, इन क्रूर क्रीड़ाओं से क्यों नष्ट करूँ?


१२

दूसरी वर्षा भी आधी से ज्यादा बीत गयी, लेकिन चक्रधर ने माता पिता से अहल्या का वृत्तान्त गुप्त ही रखा। जब मुशीजी पूछते—वहाँ क्या बात कर आये? आखिर यशोदानन्दन को विवाह करना है या नहीं? न आते हैं, न चिट्ठी-पत्री लिखते हैं, अजीब आदमी हैं। न करना हो, तो साफ-साफ कह दें। करना हो, तो उसकी तैयारी करें। ख्वाहमख्वाह झमेले में फँसा रखा है—तो चक्रधर कुछ इधर-उधर की बातें करके टाल जाते। उधर यशोदानन्दन बार-बार लिखते, तुमने मुंशीजी से सलाह की या नहीं। अगर तुम्हें उनसे कहते शर्म आती हो, तो मैं ही आकर कहूँ? आखिर इस तरह कबतक समय टालोगे? अहल्या तुम्हारे सिवा किसी और से विवाह न करेगी। यह मानी हुई बात है। फिर उसे वियोग का व्यर्थ क्यों कष्ट देते हो। चक्रधर इन पत्रों के जवाब में भी यही लिखते कि मैं खुद फिक्र में हूँ। ज्योंही मौका मिला, जिक्र करूँगा। मुझे विश्वास है कि पिताजी राजी हो जायँगे।

जन्माष्टमी के उत्सव के बाद मुंशीजी घर आये, तो उनके हौसले बढ़े हुए थे। राजा साहब के साथ-ही-साथ उनके सौभाग्य का सूर्य उदय होता हुआ मालूम होता था। अब वह अपने ही शहर के किसी रईस के घर चक्रधर की शादी कर सकते थे। अब इस बात की जरूरत न होगी कि लड़की के पिता से विवाह का खर्च माँगा जाय। अब वह मनमाना दहेज ले सकते थे और धूमधाम से बारात निकाल सकते थे। राजा साहब जरूर उनकी मदद करेंगे, लेकिन मुंशी यशोदानन्दन को वचन दे चुके थे, इस लिए उनसे एक बार पूछ लेना उचित था। अगर उनकी तरफ से जरा भी विलम्ब हो, तो साफ कह देना चाहते थे कि मुझे आपके यहाँ विवाह करना मंजूर नहीं। यों दिल में निश्चय करके एक दिन भोजन करते समय उन्होंने चक्रधर से कहा—मुंशी यशोदानन्दन भी कुछ ऊल-जलूल आदमी हैं। अभी तक कानों में तेल डाले हुए बैठे हैं। क्या समझते हैं कि मैं गरजू हूँ?

चक्रधर—उनकी तरफ से तो देर नहीं है। वह तो मेरे खत का इन्तजार कर रहे हैं।

वज्रधर—मैं तो तैयार हूँ, लेकिन अगर उन्हें कुछ पशोपेश हो, तो मैं उन्हें मजबूर नहीं करना चाहता। उन्हें अख्तियार है, जहाँ चाहें करें। यहाँ सैकड़ों आदमी मुँह खोले हुए हैं। उस वक्त जो बात थी, वह अब नहीं है। तुम आज उन्हें लिख दो कि या तो इसी जाड़े में शादी कर दें, या कहीं और बातचीत करें। उन्हें समझता क्या