मस्तिष्क की चिन्तन-क्रिया जिसे वह विचार-तत्व का नाम देकर एक स्वतंत्र वस्तु मान लेते हैं, वास्तविक संसार का देमिऊर्ग (निर्माता, रचयिता) है। इसके विपरीत , मेरे लिए विचार-तत्व मानव-मस्तिष्क द्वारा प्रतिबिम्बित , और चिन्तन के विभिन्न रूपों में परिवर्तित , बाह्य संसार को छोड़कर और कुछ नहीं।" मार्क्स के पदार्थवादी दर्शन के पूर्ण रूप से अनुकूल , और उसकी व्याख्या करते हुए, एंगेल्स ने 'ड्यूहरिंग मत-खंडन' में (जिसकी पाण्डुलिपि मार्क्स ने पढ़ी थी), लिखा थाः “संसार की एकता उसके अस्तित्व में नहीं है। संसार की वास्तविक एकता उसकी भौतिकता में है... जो दर्शन और प्रकृति-विज्ञान के एक सुदीर्घ और कठिन विकास से सिद्ध होती है ... गति पदार्थ के अस्तित्व का रूप है। कहीं भी पदार्थ का अस्तित्व गति के बिना नहीं रहा और न ही गति पदार्थ के बिना हो सकती है .. परन्तु यदि ... यह प्रश्न उठाया जाय कि विचार और चेतना क्या हैं और इनका उद्गम क्या है, तो यह प्रकट हो जाता है कि वे मानव- मस्तिष्क की उपज हैं और मनुष्य स्वयं प्रकृति की उपज है जिसका अमुक वातावरण में, और प्रकृति के साथ, विकास हुआ है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि मानव-मस्तिष्क की उपज अन्ततोगत्वा प्रकृति की ही उपज होने के कारण शेष प्रकृति का विरोध नहीं करती , वरन् उसके अनुरूप है। " हेगेल आदर्शवादी थे, अर्थात् उनके लिए मस्तिष्क के विचार वास्तविक चीज़ों और प्रक्रियाओं के कमोबेश भाववाचक प्रतिबिम्ब नहीं थे (मूल में Abbilder --प्रतिच्छाया; कभी-कभी एंगेल्स नक़ल उल्लेख करते हैं), वरन् इसके विपरीत , उनके लिए चीजें और उनका विकास , किसी उस विचार-तत्व के ही गोचर रूप थे, जिसका अस्तित्व इस संसार के पहले ही कहीं न कहीं अवश्य था।" अपनी पुस्तक 'लुडविग फ़ायरबाख' में जिसमें फ़ायरबान के दर्शन पर अपने और मार्क्स के मतों की वह व्याख्या करते हैं, और जिसे १८४४-१८४५ में हेगेल, फायरबाल और इतिहास की पदार्थवादी धारणा पर मार्क्स के साथ मिलकर लिखी हुई अपनी एक पुरानी पांडुलिपि को दोबारा पढ़ने के बाद उन्होंने प्रेस में दिया था- एंगेल्स ने लिखा था : सभी तरह के दर्शनों का , विशेषकर आधुनिक दर्शन का मूल महाप्रश्न चित् और सत् (विचार और अस्तित्व),
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