पृष्ठ:कार्ल मार्क्स, फ्रेडरिक एंगेल्स.djvu/१४

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"इस प्रकार प्रकृति-विज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि अन्ततोगत्वा प्रकृति की क्रियाएं द्वंद्ववादी हैं, न कि अतिभूतवादी !"

एंगेल्स ने यह भी लिखा था : जन-साधारण की चेतना में एक आधारभूत महान विचार ने इस प्रकार व्यापकता से घर कर लिया है - विशेषकर हेगेल के समय से-कि उसके बारे शायद ही कभी कोई शंका उठाता हो। यह विचार इस प्रकार है : संसार को स्वतः प्रस्तुत पदार्थों का संगठन कहने से उसका बोध नहीं हो सकता ; उसे प्रक्रियाओं का संगठन मानना चाहिए। इन प्रक्रियाओं में पदार्थ ऊपर से वैसे ही स्थायी जान पड़ते हैं जैसे मस्तिष्क के भीतर उनके मानसिक प्रतिबिम्ब , उनकी कल्पनाएं परन्तु इन पदार्थों के आवागमन का एक अबाध परिवर्तन-क्रम चला ही करता है। परन्तु इस आधारभूत विचार को शब्दों में स्वीकार कर लेना एक बात है और यथार्थ में, उसे अनुसंधान के सभी क्षेत्रों में सर्वांशतः लागू करना दूसरी बात है।" "द्वंद्वात्मक दर्शन के लिए कुछ भी अन्तिम , त्रिकाल-सत्य और पवित्र नहीं है। वह हर चीज़ में, और हर चीज़ की , अनित्यता का दर्शन कराता है। उसके सामने आवागमन के अबाध क्रम को छोड़कर, निम्न से ऊर्ध्व की ओर अविराम उन्नति को छोड़कर, कुछ भी चिरन्तन नहीं है। और द्वंद्वात्मक दर्शन अपने में चिन्तनशील मस्तिष्क में इस क्रम के प्रतिबिम्ब मात्र के सिवा कुछ नहीं है। इस प्रकार मार्क्स के अनुसार द्वंद्ववाद “बाह्य संसार और मानवीय चिन्तन दोनों की ही गति के सामान्य नियमों का विज्ञान" है।

हेगेल के दर्शन के इस क्रान्तिकारी पहलू को मार्क्स ने अपनाया और उसे आगे बढ़ाया। द्वंद्वात्मक पदार्थवाद को “अब ऐसे दर्शन की ज़रूरत नहीं है जो दूसरे विज्ञानों से ऊपर हो"। पहले के दर्शन में अब “चिन्तन और उसके नियम - औपचारिक तर्कशास्त्र और द्वंद्ववाद" शेष रहे। मार्क्स द्वंद्ववाद का जो अर्थ लगाते थे और इसमें उनके विचार हेगेल से मिलते थे- उसमें वर्तमान बोध-सिद्धान्त भी आ जाता है। इसके अनुसार भी विषय-वस्तु पर वैसे ही विचार करना होगा - बोध के उद्गम और विकास का अज्ञान से ज्ञान की ओर संक्रमण का ऐतिहासिक अध्ययन करके उससे व्यापक परिणाम निकालना होगा।

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