पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/१६२

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मुद्रा, या मालों का परिचलन १५६ होने पर मालों और उनके मूल्य-रूप - मुद्रा-का विरोष तीन होकर एक निरपेक्ष विरोष बन जाता है। इसलिए ऐसी हालत पैदा होने पर इसका कोई महत्व नहीं रहता कि मुद्रा किस रूप में प्रकट होती है। भुगतान चाहे सोने में करने पड़े और चाहे बैंकनोटों जैसी उपार-मुद्रा में, मुद्रा का अकाल जारी रहता है।' अब यदि हम किसी निश्चित काल में चालू मुद्रा के कुल जोड़ पर विचार करें, तो हम पायेंगे कि अगर हमें चालू माध्यम के तथा भुगतान के साधन के चलन की तेजी मालूम हो, तो चालू मुद्रा का कुल जोड़ इस तरह मालूम हो सकता है कि जिन नामों को मूर्त रूप धारण करना है, उनको जोड़ लिया जाये और उसके साथ उन भुगतानों की रकम को भी जोड़ दिया जाये, जिनको निबटाने की तारीख इस काल में पड़ने वाली है, फिर इस जोड़ में से उन भुगतानों को घटाना होगा, जो एक दूसरे को मंसूज कर देते हैं, और परिचलन के साधन के रूप में और भुगतान के साधन के रूप में बारी-बारी से एक प्रकला सिक्का जितने परिपपों में काम करता है, उनकी संख्या को भी इस जोड़ में से कम कर देना पड़ेगा और तब हमें चालू मुद्रा का कुल जोर मिल जायेगा। इसलिए उस वक्त भी, जब दाम, चलन की तेजी, और भुगतानों में बरती जाने वाली मितव्ययिता की मात्रा पहले से निश्चित होते हैं, तब भी किसी एक निश्चित काल में-जैसे दिन भर-चालू रहने वाली मुद्रा की मात्रा और उसी काल में परिचलन . . - " (Karl Marx, उप० पु०, पृ० १२६ ।) “गरीब हाथ पर हाथ रखकर खड़े हो जाते हैं, क्योंकि धनियों के पास उनको नौकर रखने के लिए मुद्रा नहीं होती, हालांकि उनके पास भोजन और कपड़ा तैयार करने के लिए वह जमीन और वे हाथ अब भी होते हैं, जो उनके पास पहले थे। और असल में तो किसी भी राष्ट्र का सच्चा धन मुद्रा नहीं, यह जमीन at & Ta et al I" (John Bellers, “Proposals for Raising a Colledge of Industry" [जान बैलेर्स , 'उद्योग का एक कालिज स्थापित करने के सम्बंध में कुछ सुझाव', London, 1696, पृ० ३।) नीचे दिये हुए उदाहरण से मालूम हो जायेगा कि जो लोग अपने को "amis du commerce" ("व्यापार के मित्र") कहते हैं, वे ऐसी हालत से किस तरह फायदा उठाते हैं। एक बार (१८३६ में) एक पुराने लालची महाजन ने (सिटी में) अपने निजी कमरे में अपने डेस्क का ढक्कन खोलकर बैंक नोटों की एक गड्डी अपने एक मित्र को दिखायी और बहुत मजा लेते हुए कहा कि ये ६ लाख पौण्ड के नोट हैं, जिनको उसने मुद्रा को अप्राप्य बना देने के लिए रोक रखा है, और अब वह उसी रोज तीसरे पहर के तीन बजे उन सब को मुक्त कर देने वाला t" ("The Theory of Exchanges. The Bank Charter Act of 1844" [' TET बाजारों का सिद्धान्त । १८४४ का बैंक चार्टर कानून'], London, 1864, पृ० ८१) अर्ध- सरकारी मुख-पत्र "The Observer" में २४ अप्रैल १८६४ को यह खबर छपी पी : “बैंक नोटों का प्रकाल पैदा करने के लिए जो तरीके इस्तेमाल किये गये हैं, उनके बारे में कुछ बहुत अजीबोगरीब अफवाहें फैली हुई है ... ऊपर से यह बात भले ही सन्देहास्पद लगे कि कोई इस तरह की चाल चली गयी होगी, फिर भी यह खबर इतनी भाम है कि उसका जिक्र करना जरूरी हो जाता है।" .