पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/३१७

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३१४ पूंजीवादी उत्पादन . . .. . देना बहुत ही ज्यादा खतरनाक बात है... जब तक हमारे कल-कारखानों में काम करने वाले गरीब लोग उसी रकम के एवज में, जो पावकल वे चार दिन में कमाते हैं, छ: दिन तक मेहनत करने के लिये राजी नहीं हो जायेंगे, तब तक इस रोग का पूर्ण उपचार नहीं हो पायेगा।"1 इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये और "मालसीपन, अन्याशी पौर स्यावती" का नाम करने, उद्योग की भावना को बढ़ावा देने, “हमारे देश के कारखानों में मम के नाम को कम करने और जमीनों को गरीबों के भरण-पोषण के लिये लगाये गये करों के भारी बोने से मुक्त करने के लिये" पूंजी के हमारे इस वफादार समर्षक ने एक मातमाया हुमा तरीका सुझाया है: यह यह कि बिन मजदूरों का सार्वजनिक पा से भरण-पोषण होने लगे, या, संक्षेप में, जो मजबूर कंगाल हो जायें, उनको पकड़कर "एक पादर्श मुहतान-बाने" (an ideal workhouse) में बन्द कर दिया जाये। यह प्रादर्श मुहताज-जाना गरीबों के लिए मामय लेने का स्थान नहीं होगा, "जहाँ उनको खूब स्टकर भोजन मिलेगा, बढ़िया-बढ़िया गरम कपड़े पहनने को मिलेंगे और वहां उनको नहीं के बराबर काम करना पड़ेगा, बल्कि उसे एक "मातंक-गृह" (house of terror) के रूप में बनाया जायेगा। इस "मातंक-गृह" में, इस "पावर्श मुहताज-खाने में गरीब लोग १४ घण्टे रोग काम करेंगे, जिसमें से कुछ समय भोजन प्रादि के लिये छोड़ दिया जायेगा, मगर इस बात का खयाल रखा जायेगा कि हरेक को कम से कम १२ घण्टे की ठोस मेहनत बहर करनी पड़े।" १७७० के इस प्राव मुहतान-बाने में, इस "मातंक-गृह" में बारह घण्टे रोजाना काम कराने की बात थी। इसके ६३ वर्ष बाद, १८३३ में, अब इंगलैग की संसद ने उद्योग की चार शालाओं में १३ वर्ष से लेकर १८ वर्ष तक के बच्चों का काम का दिन घटाकर पूरे १२ घण्टे का कर दिया, तो ऐसा शोर मचा, जैसे इंगलैड के उद्योगों के लिये प्रलय का दिनमा गया हो। १८५२ में, जब लुई बोनापार्ट ने पूंजीपति वर्ग के बीच अपनी स्थिति को करने के लिये काम के कानूनी दिन को लम्बा करने की कोशिश की, तो फ्रांस के लोगों ने एक प्रावाब से चिल्लाकर यह कहा कि "प्रजातंत्र के कानूनों में से अब केवल एक ही अच्छा कानून बचा है, और वह है काम के दिन की सीमा १२ घण्टे निश्चित करने बाला कानून!"" स्यूरिध में १० वर्ष से अधिक उम्र के बच्चों को १२ घन्टे से अधिक काम नहीं . . 1 "An Essay, &c." ('व्यापार तथा वाणिज्य पर एक निबंध, इत्यादि'), Lon- don, 1770, पृ० १५,४१, १६, १७, ५५, ५७, ६९।- जैकब वैण्डरलिण्ट ने १७३४ में ही यह कह दिया था कि मेहनतकशों की काहिली के बारे में पूंजीपति जो इतना शोर मचाते है, उसकी असली वजह यह है कि वे लोग मजदूरों से उसी मजदूरी में ४ के बजाय ६ दिन की मेहनत करा लेना चाहते हैं। 'उप. पु., पृ. २४२ । पु० । लेखक का कहना है कि "स्वाधीनता के हमारे उत्साह भरे विचारों पर फ्रांसीसी लोग हंसते हैं।" (उप. पु., पृ. ७८।) "वे लोग बास तौर पर १२ घण्टे रोजाना से ज्यादा म करने पर ऐतराज करते थे, क्योंकि प्रजातंत्र के कानूनों में से अब एक ही अच्छा कानून उनके पास बचा है, और वह है FTA FT Uet at forener TETET " ("Rep.of Insp. of Fact., 31st October, 1856" ["फैक्टरियों के इंस्पेक्टरों की रिपोर्ट, ३१ अक्तूबर १८५६'], पृ. ८०।') फ्रांस का उप.