३५० पूंजीवादी उत्पादन . . - खुद अपने उत्पादन के सापन होते और वह मजदूर की तरह रहने में ही संतुष्ट होता, तो जितना समय उसके जीवन के साधनों के पुनरुत्पादन के लिये प्रावश्यक है, जैसे, मान लीजिये, ८ घण्टे रोजाना, तो उसे उससे ज्यादा काम करने की कोई आवश्यकता न होती। इसके अलावा, उसे उत्पादन के केवल इतने साधनों की ही बहरत पड़ती, बो ८ घण्टे काम करने के लिये काफी होते। दूसरी ओर, पूंजीपति को, जो कि इन ८ घण्टों के अलावा उससे, मान लीजिये, ४घण्टे का अतिरिक्त मम कराता है, उत्पादन के अतिरिक्त साधनों को मुहय्या करने के लिये कुछ अतिरिक्त रकम की परत पड़ेगी। पर हम जिन बातों को मानकर चल रहे हैं, उनके अनुसार उसे केवल मजदूर की भांति रहने के लिये - उससे बरा भी अच्छी तरह नहीं, बल्कि अपनी केवल प्राथमिक पावश्यकताओं को पूरा करने के लिये-बो मजदूरों को नौकर रखना पड़ेगा,- तभी वह इतना अतिरिक्त मूल्य रोव हासिल कर पायेगा। और इस सूरत में महत निन्दा रहना हो, न कि अपनी दौलत को बढ़ाना, उसके उत्पादन का लक्ष्य बन जायेगा, लेकिन पूंजीवादी उत्पादन में तो सदा बोलत बढ़ाने का उद्देश्य निहित होता है। यदि पूंजीपति साधारण मजदूर से केवल दुगुनी अच्छी तरह जीवन बसर करना चाहता है और साथ ही पैदा होने वाले अतिरिक्त मूल्य का पाषा भाग पूंजी में बदल देना चाहता है, तो उसे मजदूरों की संख्या के साथ-साथ अपनी लगायी हुई पूंजी को भी पहले से माठगुनी कर देना होगा। जाहिर है, यह भी मुमकिन है कि अपने मजबूर की तरह बह खुद भी काम करने लगे और उत्पादन की प्रक्रिया में प्रत्यक्ष रूप से भाग लेने लगे, परन्तु तब वह पूंजीपति और मजदूर के बीच का महज कोई बोगला जीव बन जायेगा, तब वह "छोटा मालिक" कहलायेगा। पूंजीवावी. उत्पादन की एक जास मंजिल पर यह जरूरी होता है कि जितने समय तक कोई पूंजीपति पूंजीपति की तरह, पर्वात् मूर्तिमान पूंजी की तरह काम करता है, उतना समय उसे पूरे का पूरा केवल दूसरों के भम को हस्तगत करने और इसलिये उसपर नियंत्रण रखने में और इस श्रम की पैदावार को बेचने में खर्च करना चाहिये। इसीलिये, मध्य युग के शिल्पी संघ किसी भी बंधे के उस्ताद को 1 11 काश्तकार अकेले अपने श्रम पर निर्भर नहीं रह सकता, और अगर वह रहेगा, तो मेरा मत है कि वह नुकसान उठायेगा। उसका काम तो यह होना चाहिये कि पूरी चीज़ पर सामान्य रूप से निगाह रखे। अनाज गाहने के लिये जो मजदूर नौकर रखा गया है, उसपर निगाह रखना जरूरी है, नहीं तो बहुत सा गल्ला मांड़ा नहीं जायेगा और उतनी मजदूरी का नुकसान हो जायेगा; घास और खेत की कटाई और लुनाई प्रादि करने के लिये जो लोग नौकर रखे गये हैं, उनकी निगरानी करना जरूरी है ; फिर काश्तकार को चाहिये कि अपने खेतों की मेंहों का बराबर चक्कर लगाता रहे, उसे ख़याल रखना चाहिये कि कहीं पर लापरवाही तो नहीं बरती जा रही है, जो जरूर बरती जायेगी, यदि वह एक ही जगह से चिपककर बैठा रहेगा।" ("An Inquiry into the Connexion between the Present Price of Provisions and the Size of Farms, &c. By a Farmer" ['ara-hegut a quinta दामों और खेतों के प्राकार में क्या सम्बंध है, इस प्रश्न की जांच , इत्यादि। एक काश्तकार द्वारा लिखित'], London, 1773, पृ० १२।) यह किताब बहुत ही दिलचस्प है। इसमें "capitalist farmer" ("पूंजीवादी काश्तकार") या "merchant farmer" ("व्यापारी काश्तकार") की-जिसे बहुत साफ़ साफ़ इन्हीं नामों से पुकारा गया है-उत्पत्ति का अध्ययन किया जा सकता है और यह देखा जा सकता है कि केवल रोजमर्रा की गुजर-बसर में ही बप जाने वाले "small farmer" .
पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/३५३
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