सापेक्ष अतिरिक्त मूल्य की धारणा ३६१ - . - उसके व्यक्तिगत मूल्य से तीन पेन्स अधिक पर बेचता है और इस तरह तीन पेन्स का अधिक अतिरिक्त मूल्य कमा लेगा। दूसरी मोर, वहाँ तक इस पूंजीपति का सम्बंध है, अब १२ वस्तुओं के बजाय २४ बस्तुएं १२ घण्टे के काम के दिन का प्रतिनिधित्व करती हैं। इसलिये, उसे अब मगर काम के एक दिन की पैदावार से छुटकारा पाना है, तो मांग को पहले से दुगुनी हो जाना चाहिये, अर्थात् मग्गी को पहले से दुगुना बड़ा हो जाना चाहिये। अन्य बातों के समान रहते हुए उसके मालों के लिए पहले से अधिक बड़ी मनी केवल उसी हालत में मिल सकती है, जब उनके दाम घटा दिये जायें। इसलिये वह अपने मालों को उनके व्यक्तिगत मूल्य से कुछ अधिक पर, किन्तु उनके सामाजिक मूल्य से कुछ कम पर,-जैसे कि मान लीजिये कि बस पेन्स प्रति वस्तु के भाव पर,-वेगा। इस तरह भी वह प्रत्येक वस्तु पर एक पेनी का फालतू अतिरिक्त मूल्य तो कमा ही लेता है। उसके मालों की जीवन-निर्वाह के उन मावश्यक साधनों में, जो भम-शक्ति का सामान्य मूल्य निर्धारित करने में भाग लेते हैं, गिनती होती है या नहीं, इसका इस बात पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता कि इस तरह अतिरिक्त मूल्य में नो वृद्धि होती है, वह उसकी जेब में चली जाती है। इसलिये, बस्तु चाहे भम-शक्ति के सामान्य मूल्य-निर्धारण में भाग ले या न ले, हर पूंजीपति का हित इसी में होता है कि मम की उत्पादकता को बढ़ाकर अपने मालों को सस्ता कर दे। फिर भी ऐसी सूरत में भी अतिरिक्त मूल्य के उत्पादन में वृद्धि करने के लिये मावश्यक मम-काल को घटाना पड़ता है और चुनांचे अतिरिक्त श्रम को उतना ही बढ़ाना पड़ता है। मान लीजिये कि मावश्यक मम-काल १० घन्टे का है, एक दिन की श्रम-शक्ति का मूल्य पांच शिलिंग है, अतिरिक्त श्रम-काल २ घण्टे का है और रोजाना एक शिलिंग के बराबर अतिरिक्त मूल्य पैदा होता है। परन्तु पूंजीपति अब २४ वस्तुएं तैयार करता है, जिनको बह बस पेन्स प्रति बस्तु के भाव से बेचता है और इस तरह कुल बीस शिलिंग पाता है। उत्पादन के साधनों का मूल्य चूंकि बारह शिलिंग है, इसलिये इनमें से १४२ वस्तुएं केवल पेशगी लगायी गयी स्थिर पूंजी की स्थान-पूर्ति के काम में पाती है। १२ घण्टे के काम के दिन के मन का प्रतिनिधित्व करती है -वस्तुएं । मम-शक्ति का नाम कि पांच शिलिंग है, इसलिये छ वस्तुएं प्रावश्यक . ५ भम-कालका और ३. वस्तुएं अतिरिक्त मम का प्रतिनिधित्व करती है। इसलिये मावश्यक श्रम तथा अतिरिक्त श्रम का अनुपात , नो प्रोसत हंग की सामाजिक परिस्थितियों में ५:१वा, 1"किसी भी भादमी का मुनाफ़ा इस बात पर नहीं निर्भर करता कि दूसरे भादमियों के श्रम की कितनी पैदावार पर उसका अधिकार है, बल्कि वह इस बात पर निर्भर करता है कि दूसरे मादमियों के श्रम पर उसका कितना अधिकार है। यदि उसके मजदूरों की मजदूरी ज्यों की त्यों रहती है, पर वह अपना माल पहले से अधिक दामों में बेच सकता है, तो जाहिर है कि उसे फायदा होता है . . . तब वह जो कुछ पैदा करता है, उसका पहले से छोटा भाग उस श्रम को हरकत में लाने के लिये काफ़ी होता है और चुनांचे उसका पहले से बड़ा भाग पर अपने लिये बच रहता है।" ("Outlines of Pol. Econ." ['अर्थशास्त्र की रूपरेखा'], London, 1832, पृ. ४९, ५०1)
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