मशीनें और माधुनिक उद्योग 11 से कम में ही पूरा हो जाता है। इसलिये यह स्वतःस्पष्ट है कि पिछले १० सालों में फ्रेक्टरी में काम करने वाले मजदूर का मम कितना अधिक बढ़ गया है। इसलिये, हालांकि कंपटरी-इंस्पेक्टर १४ और १८५० के कानूनों के परिणामों की सदा प्रशंसा ही करते हैं और उनका प्रशंसा करना न्यायसंगत भी है, परन्तु साथ ही वे यह भी स्वीकार करते हैं कि श्रम के घण्टों में कमी करने के फलस्वरूप श्रम अभी से इतना अधिक तीन कर दिया गया है कि उससे मजदूर के स्वास्थ्य को और उसकी काम करने की क्षमता को हानि पहुंचने लगी है। "अधिकतर सूती मिलों, बटे हुए ऊन का कपड़ा तैयार करने वाली मिलों और रेशम की मिलों में पिछले चन्द सालों में मशीनों की गति बहुत तेज कर दी गयी है, और उनपर संतोषजनक ढंग से काम करने के लिये जो उत्तेजित मनःस्थिति मावश्यक होती है, वह प्रादमी एकदम पका गलती है। मुझे लगता है ग. प्रीनहाऊ ने फेफड़ों की बीमारी से मरने वालों की हद से ज्यादा बढ़ी हुई जिस संस्था की पोर इस विषय की अपनी हाल की एक रिपोर्ट में संकेत किया है, उसका एक कारण यह उत्तेजित मनःस्थिति भी हो, तो कोई पाश्चर्य न होगा। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं किया जा सकता कि श्रम के घण्टों को लम्बा करने की एक बार हमेशा के लिये मनाही हो जाने के बाद जो प्रवृत्ति तुरन्त ही पूंजीपति को विधिपूर्वक श्रम की तीव्रता बढ़ाकर अपनी पति-पूर्ति करने के लिये मजबूर कर देती है और जो प्रवृत्ति उसे मशीनों में होने वाले प्रत्येक सुधार को मजदूर को घूस मलने के अधिक कारगर साषन में बदल देने के लिये विवश कर देती है, वही प्रवृत्ति शीघ्र ही एक ऐसी हालत अनिवार्य रूप से पैदा कर देगी, जिसमें मम के घण्टों को फिर से घटाना लाजिमी हो जायेगा। इंगलैड के उद्योगों ने १५३३ से १९४७ तक, जब कि काम का दिन १२ घण्टे का था, जो प्रगति की थी, उसने फेक्टरी-व्यवस्था के पहले-पहल चालू होने के बाद के उन पचास वर्षों की १ शक्ति से चलने वाले दो माधुनिक करषों पर भाजकल एक बुनकर ६० घण्टे के एक सप्ताह में एक खास किस्म , लम्बाई और चौड़ाई के २६ टुकड़े तैयार करता है, जब कि शक्ति से चलने वाले पुराने करघे पर वह ४ टुकड़ों से ज्यादा नहीं तैयार कर पाता था। इस तरह के कपड़े का एक टुकड़ा बुनने का खर्च १८५० के बाद ही २ शिलिंग ९ पेन्स से घटकर ५ पेन्स रह गया था। "तीस वर्ष पहले (१८४१ में) धागे जोड़ने वाले तीन पादमियों के साथ कताई करने वाले एक मजदूर को ३०० से ३२४ तकुमों तक के एक जोड़ी म्यूलों से अधिक पर काम नहीं करना पड़ता था। इस वक्त (१८७१ में) उसे धागे जोड़ने वाले पांच मादमियों की मदद से २,२०० तकुमों की प्रोर ध्यान देना पड़ता है, और १८४१ में वह जितना सूत तैयार किया करता था, अब उससे कम से कम सात-गुना अधिक सूत उसे तैयार करना पड़ता है।" (एलेक्साण्डर रेझैव, फैक्टरी-इंस्पेक्टर,- “Journal of the Society of Arts" [धंधों की समिति की पत्रिका'] के ५ जनवरी १८७२ के अंक में।)
- "Rep. of Insp. of Fact. for 31st Oct. 1861" ('frefcet om rett
रिपोर्ट, ३१ अक्तूबर १८६१'), पृ० २५, २६॥ 'लंकाशायर के फैक्टरी मजदूरों में भव (१८६७ में) ८ घण्टे के काम के दिन का आन्दोलन शुरू हो गया है। .