मशीनें और माधुनिक उद्योग ५५३ लड़कियों को एक प्राकृतिक प्रषिकार के रूप में संतब से यह मांग करने का हक होना चाहिये कि उनसे कोई ऐसा काम न लिया जाये, जो उनकी शारीरिक शक्ति को समय से पहले ही नष्ट कर देता हो और जो बौद्धिक तथा नैतिक जीवों के रूप में उनको पतन के गर्त में गिरा देता हो।" किन्तु बच्चों के श्रम का प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष पूंजीवादी शोषण इसलिये नहीं शुरू हुमा था कि मां-बाप अपने अधिकारों का दुरुपयोग करने लगे थे, बल्कि, इसके विपरीत, यह शोषण की पूंजीवादी प्रणाली थी, जिसने मां-बापों के अधिकार के प्रार्षिक प्रापार को नष्ट करके इस अधिकार के उपयोग को उसके घातक दुरुपयोग में परिणत कर दिया था। पूंजीवादी व्यवस्था में पुराने पारिवारिक बंधनों का टूटना चाहे जितना भयंकर और घृणित क्यों न प्रतीत होता हो, परन्तु माधुनिक उद्योग स्त्रियों, लड़के-लड़कियों और बच्चे-बच्चियों को घरेलू क्षेत्र के बाहर उत्पादन की क्रिया में एक महत्वपूर्ण भूमिका देकर परिवार के और नारी तथा पुरुष के सम्बंधों के एक अधिक ऊंचे रूप के लिये एक नया प्रार्षिक साधार तैयार कर देता है। बाहिर है, परिवार के ट्यूटीनिक-साई प को उसका अन्तिम और शाश्वत रूप समझना उतनी ही बेतुकी बात है, जितना यह समझना कि परिवार के प्राचीन रोम, प्राचीन यूनान अथवा पूर्व के रूप उसके अन्तिम और शाश्वत रूप थे, क्योंकि ये तमाम रूप तो असल में परिवार के ऐतिहासिक विकास-कम की कड़ियां हैं। इसके अलावा, यह बात भी साफ है कि यदि काम करने वालों के सामूहिक बल में स्त्री और पुरुष दोनों और हर उम्र के व्यक्ति शामिल हों, तो उपयुक्त परिस्थितियां होने पर यह तथ्य लाजिमी तौर पर मानवीय विकास का कारण बन जायेगा, हालांकि अपने स्वयंस्फूर्त ढंग से विकसित, पाशविक, पूंजीवावी रूप में, जहां उत्पादन की क्रिया मजदूर के लिये नहीं होती, बल्कि मजदूर का अस्तित्व उत्पादन की क्रिया के लिये होता है, यह तभ्य समाज में दुराचार और दासता का विष फैलाने का कारण बन जाता है। जैसा कि हम पहले ही देख चुके हैं, फेक्टरी-कानूनों का सामान्यकरण करने की, अर्थात् उनको केवल मशीनों की पहली पैदावार-यांत्रिक कताई-बुनाई-से सम्बंध रखने वाले अपवावस्वरूप कानूनों के बजाय पूरे सामाजिक उत्पावन पर प्रभाव गलने वाले कानूनों में बदल देने की, पावश्यकता माधुनिक उद्योग के ऐतिहासिक विकास के ढंग से पैदा हुई। माधुनिक उद्योग के पृष्ठभाग में हस्तनिर्माण, बस्तकारी तथा घरेलू उद्योग का परम्परागत रूप एकदम बदल जाता है। हस्तनिर्माण निरन्तर पटरी-व्यवस्था में और बस्तकारियां हस्तनिर्माणों में पान्तरित होती जाती हैं। और अन्तिम बात यह है कि यदि तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाये, तो बस्तकारी तथा घरेलू उद्योगों के क्षेत्र बहुत ही थोड़े समय में सरासर नरक बन जाते हैं, जहां पूंजीवादी शोषण कोणी भरकर स्यादतियां करने की छूट मिल जाती है। ये बातें हैं, वो अन्त में एकदम पासा पलट देती हैं। एक तो बारपार यह अनुभव होता है कि जब कभी एक बिंदु पर पूंजी पर कोई कानूनी . , - - . 1 "Ch. Empl. Comm. V Rep." ('बाल-सेवायोजन पायोग की ५ वीं रिपोर्ट'), पृ. XXV (पचीस), मंक १६२, और "II Rep." ('दूसरी रिपोर्ट'), पृ० xxxVIII (अड़तीस), अंक २८५ और २८९; पृ. xxV. (पच्चीस) तथा xxVI (छब्बीस), अंक १६१। "फेक्टरी का श्रम भी घरेलू श्रम जितना ही और शायद उससे भी अधिक शुद्ध पौर अधिक अच्छा हो सकता है।" ("Rep. Insp. Fact., 31st October, 1865" ['फेक्टरियों के इंस्पेक्टरों की रिपोर्ट, ३१ अक्तूबर १८६५'], पृ. १२९।)
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