निरपेक्ष और सापेक्ष अतिरिक्त मूल्य ५७९ केवल उपयुक्त प्राकृतिक परिस्थितियों से अतिरिक्त श्रम और इसलिये अतिरिक्त मूल्य तथा अतिरिक्त पैदावार की सम्भावना भर पैदा होती थी, उनसे इनकी वास्तविकता कमी प्रस्तित्व में नहीं पाती पी। मम की प्राकृतिक परिस्थितियों में जो अन्तर होता है, उसका यह परिणाम होता है कि मन की एक ही मात्रा अलग-अलग देशों में अलग-अलग परिमाण में मानव- पावश्यकताओं को पूरा करती है और पुनांचे अन्य बातों के समान रहते हुए प्रावश्यक प्रम- काल की मात्रा हर स्थान में अलग होती है। ये परिस्थितियां अतिरिक्त मम पर केवल प्राकृतिक सीमाओं के रूप में प्रभाव गलती है, अर्थात् वे उन बिन्दुओं को निर्धारित कर देती हैं, वहां से दूसरों के लिये किया जाने वाला श्रम प्रारम्भ हो सकता है। उद्योग जितनी प्रगति करता जाता है, ये प्राकृतिक सीमाएं उतनी ही पीछे हटती जाती हैं । पश्चिमी योरप के हमारे समाज में मजदूर जुर अपनी जीविका के लिये काम करने का अधिकार केवल अतिरिक्त श्रम के रूप में उसकी कीमत चुकाकर ही खरीदता है, और इसलिये यहां यह विचार बड़ी प्रासानी से बढ़ जमा लेता है कि अतिरिक्त पैदावार पैदा करना मानव-श्रम का एक स्वाभाविक गुण है। मगर, मिसाल के लिये, एशियाई द्वीप-समूह के पूर्वी दीपों के किसी निवासी को ले लीजिये, जहाँ साबूदाना जंगलों में जुबरी पैदा होता है। यहां के निवासी पहले पेड़ में सूराख करके यह निश्चित कर लेते हैं कि गूगा पक गया है या नहीं। फिर वे तने को काट गलते हैं और उसके कई टुकड़े बना लेते हैं। गूगा निकाला जाता है, पानी में मिलाया और छाना जाता है। तब वह साबूदाने के रूप में इस्तेमाल में पाने के लिये एकदम तैयार हो जाता है। एक पेड़ से ग्राम तौर पर ३०० पौड साबूदाना तैयार होता है, कभी-कभी ५०० से ६०० पौस तक निकम माता है। तो हमारे यहां लोग जिस तरह जंगलों में जाकर जलाने की लकड़ी काट लाते हैं, . "दुनिया में कोई ऐसे दो देश नहीं है, जो जीवन के लिये प्रावश्यक वस्तुओं की एक समान संख्या को समान बहुतायत के साथ मुहैया करते हों और जो इस काम में श्रम की समान मावा खर्च करते हों। मनुष्य जिस जलवायु में रहते हैं, उसकी कठोरता या समशीतोष्णता के साथ उनकी पावश्यकताएं भी बढ़ या घट जाती है। चुनांचे, अलग-अलग देशों के निवासियों को भावश्यकता से विवश होकर जितना व्यापार करना पड़ता है, उसका अनुपात हर देश में एक सा नहीं हो सकता, और हर देश के अनुपात में पौरों से कितना अन्तर रहता है, इसका गरमी या ठण्ड की मात्रा को देखकर जिस हद तक पता लगाया जा सकता है, उससे ज्यादा सही तौर पर पता लगाने का कोई व्यावहारिक तरीका नहीं है। और इससे यह सामान्य निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि लोगों की एक निश्चित संख्या के लिये ठण्डे जलवायु के देशों में सबसे अधिक और गरम जलवायु के देशों में सबसे कम मात्रा में श्रम की मावश्यकता होती है। कारण कि ठण्डे जलवायु के देशों में न केवल मनुष्यों को ज्यादा कपड़ों की, बल्कि धरती को भी ज्यादा जुताई-बुवाई की जरूरत पड़ती है।" ("An Essay on the Governing Causes of the Natural Rate of Interest" [' स्वाभाविक दर के निर्णायक कारणों पर एक निबंध'], London, 1750, पृ० ५६।) इस युगांतरकारी गुमनाम रचना के लेखक जे. मैस्सी है। हम ने अपना सूद का सिद्धान्त इसी पुस्तक से लिया है। 'धों ने कहा है : "Chaque travail doit laisser un excédant" ["श्रम को हमेशा कुछ न कुछ फालतू पैदावार तैयार करनी चाहिये "] ( लगता है, जैसे यह भी नागरिक के अधिकारों तथा कर्तव्यों में शामिल हो!)। . 37.
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