पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/६७७

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६७४ पूंजीवादी उत्पादन . . .. . कारखानेदार की रचना को उद्धृत किया है, जिसने प्राकाश की भोर वेलकर प्राह भरते हुए "इंगलेस की अपेक्षा फ्रांस में मम एक तिहाई अधिक सस्ता है, क्योंकि यहां गरीब लोग सन्त मेहनत करते हैं और मोटा जाते हैं तथा मोटा पहनते हैं। उनका मुख्य भोजन रोटी, फल, बनस्पति, जड़ें और सुखायी हुई मछली है। वे मांस बहुत कम खाते हैं, और जब गेहूं महंगा हो जाता है, तब वे रोटी भी बहुत कम लाने लगते हैं।"1 हमारे निबंधकार ने इसके मागे लिखा है : “इसके साथ हम यह भी जोड़ सकते हैं कि ये लोग या तो पानी पीते हैं और या हल्की शराबें और इसलिये बहुत कम पैसा खर्च करते हैं । यह हालत पैदा कर देना बहुत कठिन तो है, पर अव्यावहारिक नहीं, क्योंकि पाखिर फ्रांस और हालस दोनों जगह यह हालत पैदा कर दी गयी है। इसके बीस वर्ष बाद एक अमरीकी मक्कार ने, बंजामिन टौम्पसन (alias [ उर्फ ] काउण्ट रमनोई) नामक एक यांकी ने, जिसे काउन्ट की उपाधि देकर अभिजात वर्ग में शामिल कर दिया गया था, मानव-कल्याण से प्रेरित होकर इसी प्रकार के विचारों को व्यक्त किया, जिनसे भगवान और इनसान दोनों को बड़ा संतोष हुमा होगा। इन महाशय के “Essays" ("निबन्ध') असल में पाकशास्त्र की पुस्तक है, जिसमें मजदूरों के साधारण, महंगे भोजन के स्थान पर सस्ती वस्तुएं प्रयोग करने के तरह-तरह के अनेक नुसले दिये हुए हैं। इस विचित्र दार्शनिक का एक विशेष रूप से सफल नुसखा इस प्रकार है : “५ पौण्ड गो का सत्तू, साढ़े ७ पेन्स का; ५ पौण मक्का, सवा ६ पेन्स की; लाल हेरिंग मछली, ३ पेन्स की; नमक, १ पेनी का; सिरका, १ पेनी का; काली मिर्च और मसाले, २ पेन्स के। कुल मिलाकर हुए पौने २१ पेन्स । इससे ६४ भादमियों के लिये शोरबा तैयार हो जायेगा, और जो तथा मक्का के साधारण दामों के यह शोरबा चौपाई पेनी प्रति २० माउंस के हिसाब से दिया जा सकेगा।"3 . प्राधार पर . 1 नार्थेम्पटनशायर के इस कारखानेदार ने यहां पर मासूम चालबाजी की है। जिस आदमी का दिल इतना भरा हुआ हो, वह अगर थोड़ी चालाकी भी कर जाये , तो उसे क्षमा दिया जा सकता है। यहां पर उसने कहने के लिये इंगलैण्ड और फ्रांस के कारखानों में काम करने वाले मजदूरों की तुलना की है, पर वास्तव में ऊपर उद्धृत किये गये शब्दों में उसने फ्रांस के खेतिहर मजदूरों का वर्णन किया है, और अपने उलझे हुए ढंग से उसने यह बात स्वीकार भी कर ली है।

  • उप० पु०, पृ०७०, ७१।-तीसरे जर्मन संस्करण का नोटः तब से अब तक चूंकि संसार की मण्डी

में प्रतियोगिता प्रारम्भ हो गयी है , इसलिये मामला और आगे बढ़ गया है। संसद के सदस्य , मि० स्टेपलटन ने अपने निर्वाचकों के सामने भाषण करते हुए कहा है : “यदि चीन एक बड़ा प्रौद्योगिक देश बन जाये, तो मेरी समझ में नहीं पाता कि कारखानों में काम करने वाली योरप की भाबादी अपने प्रतियोगियों के जीवन स्तर पर पहुंचे बिना कैसे उनसे प्रतियोगिता कर पायेगी" ("The Times", ३ सितम्बर १८७३, पृ०८) । प्रतः अंग्रेजी पूंजी का वांछित लक्ष्य प्रब योरपीय नहीं, बल्कि चीनी मजदूरी है।

  • Benjamin Thompson, “Essays, Political, Economical, and Philosophical,

&c." (बेंजामिन टोम्पसन , 'निबंध - राजनीतिक, आर्थिक एवं दार्शनिक, इत्यादि), ३ खण्ड, London, 1796-1802; खण्ड १, पृ० २६४ । सर एफ. एम. ईडेन ने अपनी पुस्तक "The State of the Poor, or an History of the Labouring Classes in England, &c." 3