६७६ पूंजीवादी उत्पादन M1 .. 919 - जाने पर मजबूर के भोजन में की कमी मा जानी चाहिये। १८१४ में हाउस ५ पाऊ लास की जांच-समिति के सामने अब ए. बेनेट नामक एक बड़ा कास्तकार, जो मजिस्ट्रेट, गरीबों की मदद के कानून का संरक्षक और मजदूरी का नियामक भी पा, गवाही देने के लिये पाया, तो उससे यह प्रश्न किया गया कि "क्या मजदूर के दैनिक भम का कोई भाग गरीबों की सहायता के लिये कर लगाकर जमा किये गये कोष में से प्रवा किया बाता है?" उत्तरः "हां, एक भाग उसमें से प्रवा किया जाता है। इस तरह हर परिवार की साप्ताहिक माय एक गैलन पाली म्बल रोटी (जिसका बचन ८ पौग ११ प्रॉस होता है) और ३ पेन्स प्रति व्यक्ति तक कर दी जाती है हमने यह मान लिया है कि प्रति सप्ताह एक गैलन वाली बल रोटी परिवार के प्रत्येक सदस्य के लिये एक हफ्ते के वास्ते काफ़ी होती है। और ३ पेन्स कपड़ों के लिये होते हैं। और यदि कपड़े वर्ष की अोर से सार्वजनिक सहायता के कोष से मिल जाते हैं, तो ये ३ पेन्स काट लिये जाते हैं। यह प्रथा विल्टशापर के पूरे पश्चिमी भाग में और, मैं समझता हूं, पूरे देश में प्रचलित है। उस काल के एक पूंजीवादी लेखक ने लिखा है: "पों से उन्होंने (काश्तकारों ने ) अपने देशवासियों के एक सम्मानित भाग को मुहताजलाने की सहायता लेने के लिये विवश करके पतन के गढ़े में धकेल काश्तकार अपने लाम में तो वृद्धि करता जाता है, पर अपने श्रमजीवी प्राषितों को बरा भी संचय नहीं करने देता। हमारे समाने में अतिरिक्त मूल्य और इसलिये पूंजी के संचयकोष के निर्माण में मजदूर के भावश्यक उपभोग-कोष पर सीधे सके की क्या भूमिका है, यह तवाकषित घरेलू उद्योग से साफ हो गया है (देखिये इस पुस्तक का पनाहवां अध्याय, अनुभाग ८, ग)। इस विषय से सम्बंधित कुछ और तव्य हम पागे प्रस्तुत करेंगे। पपि उद्योग की सभी शाखामों में स्थिर पूंजी के उस भाग के लिये, जिसमें श्रम के पोबार शामिल होते है, यह मावश्यक होता है कि वह मजदूरों की एक खास संख्या के लिये (बो व्यवसाय विशेष के प्रकार से निर्धारित होती है) पर्याप्त हो, फिर भी इसका सदा यह पर्व कदापि नहीं होता कि वह उसी अनुपात में बढ़ता जायेगा, जिस अनुपात में मजदूरों की संस्था में वृद्धि होती जायेगी। मान लीजिये कि किसी कंपटरी में १०० मजदूर ८ घन्टे रोजाना काम करके काम के ८०० घन्टे देते हैं। यदि पूंजीपति इस राशि को न्योढ़ा कर देना चाहता है, तो वह ५० मजदूरों को और नौकर रख सकता है। परन्तु तब उसको न सिर्फ मजबूरी की . . 1 G. B. Newnham (barrister-at-law), "A Review of the Evidence before the Committee of the two Houses of Parliament on the Corn Laws" (ofto fo roten (बैरिस्टर), 'अनाज सम्बंधी कानूनों के विषय में संसद के दोनों सदनों की समिति के सामने दी गयी गवाहियों की समीक्षा'), London, 1815, पृ० २०, नोट। 'उप० पु०, पृ० १६, २० । 'Ch. H. Parry, उप० पु०, पृ०७७, ६६ । उधर जमींदारों ने न केवल इसकी व्यवस्था कर ली थी कि कोविन-विरोधी युद्ध में, जिसे उन्होंने इंगलैण्ड के नाम पर चलाया था, उनका जितना बर्चा हुमा था, उसकी पूरी "क्षति-पूर्ति" हो जाये, बल्कि उन्होंने अपने धन में बेशुमार इजाफा कर लिया था। 'प्रारह वर्ष में उनके लगान पहले से दुगने , तिगुने , चौगुने और यहां तक कि छ: गुने बढ़ गये थे" (उप० पु., पृ० १००, १०१)। ut
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