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पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/६९

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पूंजीवादी उत्पादन . इस प्रकार व्यक्त किया जाये, जैसे उसका बस्तुगत प्रस्तित्व हो, जैसे वह कोई ऐसी बीच हो, को बद भौतिक रूप से कपड़े से भिन्न हो, किन्तु वो फिर भी कपड़े में तथा अन्य सभी मालों में सामान्य रूप से मौजूद हो। समस्या यहीं पर हल हो जाती है। जब कोट मूल्य के समीकरण में सम-मूल्य की स्थिति में होता है, तब वह गुणात्मक दृष्टि से इसलिये कपड़े के बराबर होता है और उसी तरह की एक बीच समझा जाता है, क्योंकि वह मूल्य है। इस स्थिति में वह एक ऐसी चीज होता है, जिसमें हम मूल्य के सिवा और कुछ नहीं देलते या जिसका स्पर्शगोचर शारीरिक रूप मूल्य का प्रतिनिधित्व करता है। फिर भी कोट बुन-पानी कोट नामक माल का शरीर-महज एक उपयोग-मूल्य होता है। कपड़े का जो पहला टुकड़ा पापको मिले, उसे उठाकर देखिये, यह मापसे यह नहीं कहता कि वह मूल्य है। उसी तरह कोट भी कोट के रूप में यह नहीं कहता। इससे पता चलता है कि कोट का कपड़े के साथ मूल्य का सम्बंध स्थापित हो जाने पर उसका महत्त्व बढ़ जाता है, जब कि इस सम्बंध के प्रभाव में उसका यह महत्व नहीं होता। यह ठीक उसी तरह की बात है, जैसे बहुत से प्रादमियों का, जब वे सादे कपड़े पहने हुए होते हैं, तब कोई खास महत्त्व नहीं होता, पर जब वे भड़कीली वर्वी पहनकर पकड़कर चलने लगते हैं, तो उनका महत्त्व बढ़ जाता है। कोट के उत्पादन में सिलाई के रूप में मानव-श्रम-शक्ति का अवश्य ही वास्तविक खर्च किया गया होगा। इसलिये उसमें मानव-श्रम संचित है। इस दृष्टि से कोट मूल्य का भण्डार है, हालांकि वह घिसकर तार-तार हो जाने पर भी इस सचाई को बाहर मलकने नहीं देता। और मूल्य के समीकरण में कपड़े के सम-मूल्य के रूप में उसका अस्तित्व केवल इसी दृष्टि से होता है, और इसलिये उसका महत्व मूर्तिमान मूल्य के रूप में, अपवा एक ऐसी वस्तु के रूप में होता है, वो खुद मूल्य है। उदाहरण के लिये 'क' उस वक्त तक 'ख' के लिये 'महामहिम सत्राद्" नहीं हो सकता, जब तक कि 'ख' की नजरों में “सम्राट् की महिमा" उसी समय 'क' का शारीरिक रूप न धारण कर ले,-और जो इस से भी बड़ी बात है, जब तक कि "सबाद की महिमा" प्रजा के हर नये पिता के सिंहासन पर पासीन होने के साथ- साप अपना अपना चेहरा-मोहरा, बाल और अन्य बहुत सी चीजें न बदलती जायें। इसलिये, मूल्य के उस समीकरण में, जिसमें कोट कपड़े का सम-मूल्य है, कोट मूल्य के कप की भूमिका अदा करता है। "कपड़ा" नामक माल का मूल्य "कोट" नामक मालके शारीरिक रूप के द्वारा व्यक्त होता है, एक माल का मूल्य दूसरे माल के उपयोग मूल्य के द्वारा व्यक्त होता है। हमारी इन्द्रियां सहन ही यह अनुभव कर सकती है कि उपयोग-मूल्य के म में कपड़ा कोट से भिन्न है। पर मूल्य के रूप में वह वही है, जो कुछ कोट है, और अब उसकी शकल कोट की हो जाती है। इस प्रकार, कपड़ा एक ऐसा मूल्य-रूप प्राप्त कर लेता है, जो उसके शारीरिक रूप से भिन्न होता है। वह मूल्य है, यह सत्य कोट के साथ उसकी समानता से प्रकट होता है, जैसे किसी ईसाई का भेडसा स्वभाव भगवान के मेमने के साथ उसके सादृश्य से प्रकट होता है। तो, इस तरह, हम देखते हैं कि मालों के मूल्य का विश्लेषण करके अब तक हम वो कुछ मालूम कर चुके हैं, वह सब कपड़ा पुद, जैसे ही वह एक दूसरे माल के-यानी कोट के- सम्पर्क में पाता है, वैसे ही हमें बताने लगता है। मुश्किल सिक्रं यही है कि वह अपने विचार केवल उस एकमात्र भाषा में व्यक्त करता है, जिससे वह परिचित है, अर्थात् मालों की भाषा . . .