पूंजीवादी उत्पादन . जाने वाले थे। लेकिन उनकी नींव या तो व्यक्तिगत रूप से मनुष्य के अपरिपक्व विकास पर, जिसने कि उस वक्त तक अपने को उस नाल से मुक्त नहीं किया था, जिसने उसे प्राविम कबीले के समाज के अपने सहयोगी मनुष्यों के साथ बांध रखा था, और या पराधीनता के प्रत्यक्ष सम्बंधों पर रखी गयी थी। ऐसे सामाजिक संघटन केवल उसी हालत में पैदा हो सकते हैं और कायम रह सकते हैं, जब मम की उत्पादक शक्ति एक निम्न स्तर से ऊपर न उठी हो और इसलिये जब मनुष्य तथा मनुष्य के बीच और मनुष्य तथा प्रकृति के बीच भौतिक जीवन के क्षेत्र में पाये जाने वाले सामाजिक सम्बंध उतने ही संकीर्ण हों। यह संकीर्णता प्राचीन प्रकृति-पूजा में तथा लोक-धर्मों के अन्य तत्वों में प्रतिविम्बित हुई है। वास्तविक दुनिया के धार्मिक प्रतिबिम्ब का बहरहाल केवल उसी समय अन्तिम रूप में लोप होगा, जब रोजमर्रा के जीवन के व्यावहारिक सम्बंधों में मनुष्य को अपने सहयोगी मनुष्यों तथा प्रकृति के साथ सहज ही समझ में पा जाने वाले तथा युक्तिसंगत सम्बंधों के सिवा और किसी प्रकार के सम्बंधों का सामना नहीं करना पड़ेगा। समाज की जीवन-प्रक्रिया भौतिक उत्पादन की प्रक्रिया पर पाषारित होती है। उसके ऊपर पड़ा हुमा रहस्य का प्रावरण उस समय तक नहीं हटता, जब तक कि वह स्वतंत्र रूप से सम्बड मनुष्यों द्वारा किया जाने वाला उत्पादन नहीं बन जाती और जब तक कि एक निश्चित योजना के अनुसार उसका सचेतन ढंग से नियमन नहीं किया जाता। लेकिन इसके लिये जरूरी है कि समाज के पास एक खास तरह की भौतिक बुनियाव या अस्तित्व की विशेष प्रकार की भौतिक परिस्थितियां हों, जो खुद विकास की एक लम्बी और कष्टदायक प्रक्रिया का ही स्वयंस्फूर्त फल होती हैं। यह सच है कि अर्थशास्त्र ने मूल्य तथा उसके परिमाण का विश्लेषण किया है, भले ही वह कितना ही अपूर्ण क्यों न हो, और यह पता लगाया है कि इन रूपों के पीछे क्या छिपा . . . 1 . . मूल्य के परिमाण का रिकार्डो ने जो विश्लेषण किया है, और उन्होंने सबसे अच्छा विश्लेषण किया है, उसकी अपर्याप्तता इस रचना की तीसरी और चौथी पुस्तकों में जाहिर होगी। जहां तक आम तौर पर मूल्य का सम्बंध है , अर्थशास्त्र की प्रामाणिक धारा की कमजोरी यह है कि उसने कहीं पर भी साफ़-साफ़ और पूर्णतः सचेतन ढंग से श्रम के दो रूपों का अन्तर नहीं दिखाया है - एक वह रूप, जब श्रम किसी पैदावार के मूल्य में प्रकट होता है, और दूसरा वह , जब वही श्रम उस पैदावार के उपयोग-मूल्य में प्रकट होता है । व्यवहार में, जाहिर है, यह भेद किया जाता है, क्योंकि यह धारा यदि एक समय श्रम के परिमाणात्मक पहलू पर विचार करती है, तो दूसरे समय उसके गुणात्मक पहलू को लेती है। लेकिन इसका उसे तनिक भी माभास नहीं है कि जब श्रम के विभिन्न प्रकारों के बीच केवल परिमाणात्मक अन्तर देखा जाता है, तब उनकी गुणात्मक एकता अथवा समानता पहले से ही मान ली जाती है और इसलिये उनको पहले से ही प्रमूर्त मानव-श्रम में बदल दिया जाता है । उदाहरण के लिये , रिकार्डो ने कहा है कि वह देस्तूत दे वेसी की इस स्थापना से सहमत हैं कि "यह बात चूंकि निश्चित है कि हमारी मूल सम्पत्ति केवल हमारी शारीरिक और मानसिक क्षमताएं ही है, इसलिए इन क्षमतामों का प्रयोग, किसी न किसी प्रकार का श्रम , हमारा एकमात्र मूल कोष है, और वे तमाम वस्तुएं, जिनको हम धन कहते हैं, सदा इस प्रयोग से ही पैदा होती है... यह बात भी निश्चित है कि ये सब वस्तुएं केवल उस श्रम का प्रतिनिधित्व करती है, जिसने उनको पैदा .
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