द्रव्य पूंजी का परिपथ ३६ , . श्र क्रम चालू ग्राहक दूसरे की श्रम शक्ति को खरीदनेवाले के रूप में आता है, जिसे वह अपने हुक्म पर चलायेगा, अपनी पूंजी में समाकलित कर लेगा, जिससे कि वह वस्तुतः उत्पादक पूंजी वन सके। इसलिए पूंजीपति और उजरती मजदूर में वर्ग सम्बन्ध अस्तित्वमान होता है, उसी क्षण से . पूर्वकल्पित होता है कि जैसे ही द्र श्र (जो मजदूर के लिए श्र द्र है ) क्रम में वे एक दूसरे सामने आते हैं। यह क्रय-विक्रय का, द्रव्य का सम्बन्ध है, पर ऐसा क्रय-विक्रय है, जिसमें माना गया है कि ग्राहक तो पूंजीपति होगा और विक्रेता उजरती मज़दूर । यह सम्बन्ध इस बात से पैदा होता है कि श्रम शक्ति के सिद्धिकरण के लिए जो उपादान आवश्यक हैं , यानी जो निर्वाह साधन और उत्पादन साधन आवश्यक हैं, वे दूसरे की सम्पत्ति होने के कारण श्रम शक्ति के मालिक से वियुक्त हो गये हैं। हमें यहां इस वियोजन के मूल कारण से सरोकार नहीं है। जैसे ही द्र होता है, यह अस्तित्वमान हो जाता है। जिस बात से हमें यहां सरोकार है , वह यह है : यदि द्र श्र यहां द्रव्य पूंजी के कार्य के रूप में अथवा द्रव्य पूंजी के अस्तित्व के रूप में पेश आता है, तो ऐसा केवल इस कारण से नहीं होता कि द्रव्य यहां एक उपयोगी मानवीय कार्य- कलाप अथवा सेवा के भुगतान की भूमिका ग्रहण कर लेता है, इसके फलस्वरूप नहीं होता कि द्रव्य भुगतान के साधन का कार्य करता है। द्रव्य इस रूप में केवल इसलिए खर्च किया जा सकता है कि श्रम शक्ति स्वयं को उत्पादन साधनों से वियोजन की अवस्था में पाती है ( इनमें निर्वाह साधन भी शामिल हैं, जो स्वयं श्रम शक्ति के उत्पादन साधन भी हैं), और इसलिए कि इस वियोजन को ख़त्म करने का सिर्फ एक यही उपाय है कि श्रम शक्ति उत्पादन साधनों के मालिक के हाथ वेची जाये ; और फलतः इसलिए कि श्रम शक्ति के कार्य से, जो श्रम की उस माना तक कदापि सीमित नहीं रहता, जो उसकी अपनी कीमत के पुनरुत्पादन के लिए दरकार है, श्रम शक्ति के ग्राहक को भी सरोकार होता है। उत्पादन की प्रक्रिया के दौरान पूंजी सम्बन्ध केवल इसलिए उत्पन्न होता है कि वह परिचलन क्रिया में, उन विभिन्न मूल आर्थिक परिस्थितियों में अंतर्निहित होता है, जिनके अन्तर्गत ग्राहक और विक्रेता एक दूसरे के सामने आते हैं, वह उनके वर्ग सम्बन्ध में अंतर्निहित होता है। यह द्रव्य नहीं है कि जो अपनी प्रकृति से ही इस सम्बन्ध को उत्पन्न करता है ; प्रत्युत यह इस सम्बन्ध के होने के कारण है कि कोरे द्रव्यगत कार्य का पूंजीगत कार्य में रूपान्तरण संभव हो जाता है। द्रव्य पूंजी सम्बन्धी अवधारणा में ( फ़िलहाल जिस विशेष कार्य में वह हमारे सामने आती है, उसकी परिधि को ध्यान में रखते हुए हम उसी का विवेचन करेंगे ) दो भ्रान्तियां साथ-साथ चलती हैं अथवा एक दूसरे का रास्ता काटती हैं। पहले तो यह कि द्रव्य पूंजी की हैसियत से पूंजी मूल्य जो कार्य सम्पन्न करता है और जिन्हें वह द्रव्य रूप में होने के कारण ही सम्पन्न कर सकता है- उनका उद्भव भ्रान्तिपूर्वक उसकी पूंजीगत विशेषता के कारण माना जाता है। वास्तव में उनका उद्भव पूंजी मूल्य के द्रव्य रूप से ही होता है, उसके द्रव्य में व्यक्त होने के कारण होता है। दूसरी बात यह इसके विपरीत द्रव्यगत कार्य के विशिष्ट सारतत्व का कारण द्रव्य की प्रकृति को माना जाता है, जो द्रव्यगत कार्य के साथ-साथ उसे पूंजीगत कार्य भी वना देती है ( यहां द्रव्य को पूंजी समझ लिया जाता है), जब कि द्रव्यगत कार्य सामाजिक परि- स्थितियों की पूर्वापेक्षा करता है जैसी यहां द्र श्र क्रम से इंगित होती हैं, जो मात्र मालों के परिचलन में और तदनुरूप द्रव्य परिचलन में कतई विद्यमान नहीं होती। -
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