पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/४३

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४२ पूंजी के रूपांतरण और उनके परिपथ श्र यह गति द्र- मा< सा . श्र बेत्र नहीं सकता, क्योंकि वह उसका गुलाम नहीं है और पूंजीपति ने एक निश्चित अवधि के लिए उसकी श्रम शक्ति के उपयोग के अलावा और कुछ नहीं खरीदा है। दूसरी ओर वह इस श्रम शक्ति का उपयोग उसकी सहायता से उत्पादन साधनों को इस्तेमाल करके माल का निर्माण करने के अलावा और किसी तरह नहीं कर सकता। इसलिए पहली मंजिल का परिणाम है दूसरी मंजिल में, पूंजी की उत्पादक मंज़िल में प्रवेश । उ सूत्र द्वारा व्यक्त होती है। यहां विन्दियां यह प्रकट करती हैं कि पूंजी के परिचलन में वाधा पड़ी है, पर उसकी वृत्तीय गति चालू है, क्योंकि माल परिचलन क्षेत्र से निकलकर वह उत्पादन क्षेत्र में पहुंच जाती है। इसलिए पहली मंजिल , द्रव्य पूंजी के उत्पादक पूंजी में रूपान्तरण की मंजिल, दूसरी मंज़िल की, उत्पादक पूंजी के कार्यरत होने की सूचक तथा परिचायक अवस्था मात्र है। द्र- मा< सूत्र में यह पूर्वकल्पना निहित है कि इस क्रिया को करनेवाले के 'उ सा पास इस्तेमाल के लिए जो मूल्य हैं, वे केवल उपयोग रूप में ही नहीं, बल्कि वे उसके पास द्रव्य रूप में भी मौजूद हैं , वह द्रव्य का स्वामी है। किन्तु चूंकि इस क्रिया का अर्थ ही दूसरे को द्रव्य देना है, इसलिए वह व्यक्ति द्रव्य का स्वामी वहीं तक बना रह सकता है कि जहां तक धन देने का मतलव धन का वापस आना भी हो। लेकिन धन उसके पास वापस पा सकता है केवल माल को बेचने से। इसलिए उपर्युक्त क्रिया में यह पूर्वापेक्षा निहित है कि वह व्यक्ति माल उत्पादक है। द्र - श्र। उजरती मजदूर अपनी श्रम शक्ति की विक्री के द्वारा ही जिन्दा रहता है। श्रम शक्ति का परिरक्षण , उसका आत्मपरिरक्षण , दैनिक उपभोग की अपेक्षा करता है। इसलिए अपेक्षाकृत थोड़े-थोड़े समय पर उसके भुगतान की निरन्तर आवृत्ति आवश्यक होगी, जिससे कि वह श्र-द्र-मा अथवा मा-द्र मा क्रमों की प्रावृत्ति कर सके , यात्मपरिरक्षण के लिए आवश्यक खरीदारियों को दोहरा सके। इस कारण पूंजीपति को उजरती मजदूर के सामने हमेशा द्रव्य पूंजीपति की हैसियत से और उसकी पूंजी को द्रव्य पूंजी के रूप में पाना होता है। दूसरी ओर यदि उजरती मजदूरों को , प्रत्यक्ष उत्पादकों के समुदाय को, श्र-द्र-मा क्रम पूरा करना है, तो यह आवश्यक है कि उनके सामने निर्वाह साधन क्रय रूप में , अर्थात माल के रूप में हों। यह स्थिति उत्पादों के माल के रूप में परिचलन के उच्च विकास को और फलतः माल उत्पादन के परिमाण के भी उच्च विकास को आवश्यक बना देती है। जब उजरती श्रम द्वारा किया जानेवाला उत्पादन सार्विक हो जाता है, तव माल उत्पादन का ही उत्पादन का सामान्य रूप बन जाना अनिवार्य होता है। उत्पादन की इस पद्धति को एक वार सामान्य मान लेने से उसके साथ-साथ सामाजिक श्रम का निरन्तर अधिकाधिक विभाजन होता जाता है। दूसरे शब्दों में पूंजीपति द्वारा माल के रूप में उत्पादित उत्पाद का विभेदन निरन्तर बढ़ता जाता है, उत्पादन की पूरक प्रक्रियाओं का स्वतन्त्र प्रक्रियाओं के रूप में और भी अधिक विभाजन होता जाता है। इसलिए द्र-उ सा का विकास उसी सीमा तक होता है, जिस सीमा तक श्र का होता है, अर्थात उत्पादन साधनों के उत्पादन का उस सीमा तक माल के उत्पादन से वियोजन होता है, जिनके उत्पादन के वे साधन हैं। अव ये उत्पादन