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पृष्ठ:कालिदास.djvu/११०

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पालियाम || इति विरचितमेतत्काध्यमायटय मेघ पदुगुणमपदोपं कालिदासस्य फाट्यम् । मलिनिनपरकाव्यं तिष्ठतादाराशाई भुवनमयतु देवस्मयंदाऽमोघः ॥ ७० ॥ इसके "मलिनितपरफान्यं" पद से यही ध्वनि निकलती है कि इसकी रचना से मेघदूत मलिन हो गया। अर्यात् इसके सामने उसकी शोभा या मुन्दरता क्षीण हो गई। और कुछ नहीं। परन्तु जिनसेन की राय में उसके-"मलिनित" हो जाने पर भी दूसरी विलायतों तक में उसका प्रकाश पहुँच गया और पाश्चभ्युदय की विमलता की ज्योति जैन-भाएडारों के भीतर ही चमकती रही। सोचने की यात है कि टीकाकार के अनुसार जो जिनसेन "यमिकुअर" "मुनीशान" और "विद्याधीश्वरा- प्रणी" थे वे कालिदास से झूठ कैसे योल सकते थे कि तुम्हारा काव्य पुराना है-तुमने चोरी की है। पुराने काभ्य की कापी एक गाँव में रक्खी है; मैं आठ रोज में मँगाकर दिखा दूंगा। हिन्दी के पत्रों और पुस्तकों में पुरातत्य-सम्बन्धी जो बातें प्रकाशित होती हैं उन पर इंडियन पेटिक्केरी और एशियाटिक सोसायटी के जरनलों में लिखनेवाले विद्वानों . की नज़र नहीं पड़ती। यदि किसीकी पड़ती भी है और १०६