पृष्ठ:कालिदास.djvu/१३३

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[कालिदास के समय का भारत ।

को ऊँचे शिखर पर चढ़ाना चाहा था। भवभूति के नाटकों से भी इस बात का पता लगता है। उसके पात्रों की चित्त. घृत्ति विकार-रहित है। घे विषय-पासना में लिप्त नहीं। विषय-यासना से अलग रखकर ये प्रात्मतत्व के विचार में निमग्न किये गये हैं। विषय-यासना भी सचरित्रता के अधीन रक्खी गई है, और फिर से सामाजिक जीवन निर्मल और संयमशील बनाया गया है। उस समय ऐसे संस्कार की अतीव आवश्यकता थी। किन्तु यह काम अच्छी तरह शुरू भी नहीं हुआ था कि विन्न पड़ गया। अतपय मारत उसी विषयासक्त समाज के यचे-खुचे निकम्मे लोगों को लेकर हो पुनः अपना सामाजिक-जीयन कायम रखने को मजदूर एमा। शङ्कराचार्य पहुत थोड़ा काम करने पाये। तथापि जो कुछ कर गये उससे भारत का बहुत उपकार हुमा। उसीके यल से भारत का सामाजिक जीयन अभी सक पना हुआ है। नहीं तो अग्मीरिया, इजिष्ट, ग्रीस, रोम आदि देशों की पुरानी समता जैसे नष्ट हो गई पेसेही भारत की सभ्यता भी नष्ट हो जाती। योरप की सम्पता में भी यदि धार्मिकता न माई तो थोही दिनों में पद भी अपश्य ही नष्ट हो जायगी। यह शहराचार्य भीर

उनकी दिपलाई राह को प्रशस्त करनेवाले महानुभायों

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