पृष्ठ:कालिदास.djvu/१४२

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कालिदाम।]

फालिवास की जो इतनी प्यानि है यह सबया यथार्थ है। किसी शीर किमी भाषा का अन्य कोई कवि स विषय में कालिदास की यगरी नही कर सस्ता। इनकी उपमायें अलौकिक है। उनमें उपमान और उपनेय का अद्भुत सारश्य है। जिस भाय, जिस विचार, जिस उति को स्पष्टतर फरने के लिए कालिदास ने उपमा का प्रयोग किया है उस उक्ति और उपमा का संयोग ऐसा यन पड़ा है जैसा कि दूध-पूरे का संयोग होता है। उपमा को उति से अलग कर देने से यह अत्यन्त फीकी किंवा नीरस हो जाती है। यह यात केवल उपमानों ही के लिए नहीं कही जा सकती। उपमाओं के सिवा उत्प्रेक्षा, रष्टान्त और निदर्शनालङ्कारों का भी प्रायः यही हाल है। अन्य कवियों की उपमाओं में उप- मान और उपमेय के लिङ्ग और पचन में कहीं कहीं विभिन्नता पाई जाती है, पर कालिदास की उपमानों में शायद ही कहीं यह दोप हो। देखिए-

(१) प्रथालशोभा इव पादपानां, झारचेष्टा विविध घभुयुः।

२) नरेन्द्रमार्गाव प्रपेदे, विवर्णभावं स स भूमिपालः।

३) समीरणोत्येव तरङ्गलेखा, पद्मान्तरं मानसराजहंसीम् ।

४) विर्षि चाकारमनिर्वृतानां, मृणालिनो हैममिवोपरागम्।

५) पर्याप्तपुप्पस्तवकावनम्रा, सशारिणी पल्लविनी लतेय ।

5) मेटः पपुस्तृप्तिमनामु पद्मिनवोदयं नाथमिवौषधीनाम् ।

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