पृष्ठ:कालिदास.djvu/१७५

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[कालिदास के प्रन्यों की मालोचना ।

अन्त में, समालोचक महाशय एक और जगह इस तरह लिखते है-

"विक्रमोऱ्याशी और मालविकाग्निमित्र में समाज के लिए हितकर मादर्श चरित्र नही। महाकवि ने वैसा चरित्र. चित्रण करने का प्रयास ही नहीं किया। इन काव्यों में कवि ने प्रणय और प्रणयोन्माद-धर्णना को ही प्रतिपाध समझा है। + + + + धर्म-माय-शून्य प्रणय के द्वारा प्रणयच्छद्मरूपी पाश बन्धन के द्वारा प्रणयी का भी अमाल- साधन होता है। ऐसे प्रणय में पड़ने से जितना अमकल होता है धर्म-भावभय प्रणय के द्वारा उतना ही, किम्बहुना उससे भी अधिक, माल होता है। कविने इस तत्व का इन दोनों काठयों में उद्घाटन महीं किया।

पस, अब और अधिक लिखने के लिए स्थान नहीं। जिन्हें कालिदास के काव्यों का तत्व विशेष रूप से जानना हो उन्हें श्रीयुत राजेन्द्रनाथ विद्या-भूपणजी की समन

पुस्तक पढ़नी चाहिए।

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