सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कालिदास.djvu/२२५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

(कालिदास की दिखाई प्राचीन भारत की एक मलफ।

लगाये हुए एक छोटे से पौधे की एक टहनी भी कोई तोड़ ले- उनके खेतों से साँयाँ की एक याल भी कोई चुरा लेजाय !

पड़े पड़े ग्रह्मज्ञानी विद्वान् बड़ी बड़ी पस्तियों में, उस समय, न रहते थे । यस्ती से कुछ दूर, अँगल में, वेअपनी पर्ण-शालायें यनाते थे। साँगाँ, कोदों और कैंगनी की ये खेती फरते थे। गायें भी ये पालते थे। उनके पास सैकड़ों नहीं, हजारों विद्यार्थी रहते थे। वे उन्हें विद्या का भी दान देते थे और भोजन-यन फर भी । अन्याय, उत्पीड़न और चीर कर्म का कहीं नाम न था। यत के पावन धूम से आसपास का प्रदेश सुरभित रहता था । वेद-योप से दिशायें गुलायमान रहती थी। प्राचाया की प्राशाय पालन करने में चक्रवर्ती राजा तक अपनी कृतार्थता मानते थे। ऐसे समय के भारत की एक झलक देखिए।

राजा रघु ने अपनी सारी सम्पत्ति विश्वजित् नामक यन में दे डाली है। पास कुछ भी नहीं रक्खा। पानी पीने के लिए पीतल का लोटा भी नहीं रह गया। रह पा गया है ? मिट्टी ही का सकोरा, मिट्टी ही की हाँडी, मिट्टी ही की थाली। इस प्रकार सर्वस्व-दान देकर प्राप रिक्त-हस्त

हो गये हैं।

२१७