[कालिदास की दिखाई हुई प्राचीन भारत की एक झलक ।
धुपचाप रप देता था। समय पर राजकर्मचारी उसे उठा ले जाते थे। भारत का यह प्राचीन दृश्य किस सहृदय के फएठ को गद्गद् और नेत्रों को साक्षु न करेगा?
नीकारपाकादि कहीये-
समृश्यते जानपदैन कपिल ।
कालोपपत्रातिधिकरप्पभाग
वन्यं शरीरस्थितिसाधनं वः ।।
धाल-श्वदेव के समय अतिथि प्राजाने से उसे विमुख जाने देना मना है। अतएव जिस जङ्गली तृण-धान्य (साँवाँ, कोदो आदि) से आप अपने शरीर की भी रक्षा करते हैं और अतिथियों की भी क्षुधा शान्त करने के लिए सदा तत्पर रहते हैं उसे, भूल से छूट आये हुए, गाँव और नगर के पशु खा तो नहीं जाते ?
इन ऋषियों के उदर-निर्वाह की साधन सामग्री को तो देखिए । वे खाते क्या थे-सका, कैंगनी और साँवाँ ! पर विद्वत्ता उनकी ऐसी थी कि साकेत के चक्रवर्ती राजा उनके पैर अपने हाथ से धोते थे। उनकी तपस्या का यह हाल था कि सुरराज इन्द्र भी उसे देखकर कम्पित होते थे!!! Plain living and high thinking का ऐसा उत्तर नमूना या कभी किसी देश की किसी जाति में और
कहीं पाया जा सकता है ? जान पड़ता है, ये ऋषि अनाज