पृष्ठ:कालिदास.djvu/६५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

[कालिदास का प्राविर्भाव-काल । प्रारती का इतना मारल्य था उस काल में कालिदास ऐसे संस्कृत-पाधि का प्रादुर्भाव नहीं हो सकता। फिर, पैशाची. भाषा में लिखी हुई गुणादय-हत यहत्कथा को कथाओं से कालिदास का परिचित होना भी यह सूचित कर रहा है कि घे गुणाढय के बाद हुए हैं, प्रारत के प्रावल्य-काल में नहीं। कालिदास ने अपने ग्रन्थों में ज्योतिष-सम्बन्धिनी जो बातें लिखी हैं उनसे चे आर्यभट्ट और वराहमिहिर के समकालीन ही से जान पड़ते हैं। या तो उन्होंने ज्योतिष का शान इन्हीं दोनों प्रन्थकारों के प्रन्यों से मात किया होगा या टीक इनके पूर्ववती ज्योतिषियों के अन्यों से। इससे सूचित होता है कि कालिदास ईसवी सन के तीसरे शतक के पहले के नहीं। पर इसके साथ ही यह भी मानना पड़ता है कि धे ईमयी सन के पाँचवे शतक के बाद के भी नहीं। क्योंकि सातवे शतक के कधि पाएमट्ट ने हर्ष-चरित में कालिदास का नामोल्लेख किया है। दूसरे पुलकेशी को प्रशस्ति में रवि-कीति ने भी भारवि के साथ फालिदाय का माम लिखा है। यह प्रशस्ति भी सातवे शतक की है। इस 'प्रशस्ति के समय भारवि को हुए. कम से कम सौ वर्ष जरूर हो चुके होंगे। क्योंकि किसी प्रसिद्ध राजा की प्रशस्ति में उसी कवि का नाम लिखा जा सकता है जो स्वयं भी खूप प्रसिद्ध हो। और प्राचीन समय में किसी की कीर्ति