पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/१०२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

- अथ चतुथोल्लासः रसांग-वर्णन ( स्थायी भाव कथन) 'प्रीति', 'हँसी" बरु 'सोक' पुनि 'रिस' 'उछाह', मै मित्त । 'पिंन', बिसमै थिर-भाव ए, आठ बसे सुभचित्त ।। वि०–'दासजी ने ( यहाँ) शृगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, बीभत्स और अद्भुत-आदि आठ रसों के स्थायीभावों - अर्थात् जो भाव चिरकाल तक चित्त में स्थिर रहे और जिसको विरुद्ध अविरुद्ध भाव छिपा ( दवा ) न सके, साथ ही जो विभावादि से संबद्ध होकर रस रूप में व्यक्त हो, उस अानंद- मूल-भूत भाव को 'स्थायी-भाव कहते हैं, का उल्लेख किया है। नवम रस-'शांत' के स्थायीभाव-निवेद' या 'सम' का नहीं। यों तो नाट्य-शास्त्र में भी नवम 'शांत' रस को नाटकों के उपयुक्त नहीं माना है, वहाँ श्राठ रसों का ही उल्लेख है, फिर भी 'श्रव्य-काव्य के उपयुक्त होते हुए भी इस (शांत-रस ) का दासनी- द्वारा वर्णन न होना-उसका उल्लेख न करना, विचारणीय है। ___ नाट्याचार्य श्री भरत मुनि से पूर्व भी पाठ रस माने जाते थे, जैसा कि उनके इस कथन से पुष्ट है- “एते ह्यष्टौरसाः प्रोक्ता द्रहिणेन महात्मना।" फिर भी आपने चार-शृंगार, रौद्र, वीर और बिभत्स रसों को ही मान्यता देते हुए कहा कि बाकी के हास्य, करुण, अद्भुत और भयानक पूर्व-कथित चार रसों के अंत- र्गत आ जाते हैं। जैसे श्रृंगार के अंतर्गत –'हास्य', रौद्र के अंतर्गत--'करुण', वीर के अंतर्गत–'अद्भुत' और बीभत्स के अंतर्गत- 'भयानक' । अस्तु, आपके मतानुसार पूर्व-कथित रसों से ही पर-कथित रसों की उत्पत्ति है। यही "अग्नि पुराण के रचयिता का मत है । भवभूति ने “एकोऽहिरसः करुणरसः” कहा है। कुछ साहित्याचार्यों ने 'प्रेयान् , वात्सल्य, लौल्य' और 'भक्ति' को भी रस माना है। विश्वनाथ चक्रवर्ती और मोजदेव ने- पा०-१. (प्र०)...हँसी, भरु सोक रिस...! (३०)...हँसी सोकै रिसी, उत्साही भय...। (प्र०-२)...हँसी भी सोकहू, रिस...। २. (प्र०) भव...। (सं० प्र०)...हँसी, सोको, रिसों, ऊत्साही भय....