पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/११०

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काव्य-निर्णय . किंतु दासजी ने यहां छह का ही उल्लेख किया है। अंतिम- अश्रु और प्रलय का परित्याग किया है। यद्यपि-'औरों अर्न' से उनका भी समावेश हो जाता है। सुप्रसिद्ध रीति-थकार 'श्री मम्मट' ने इनका पृथक् उल्लेख न कर अनुभावों के अंतर्गत माना है तथा विश्वनाथ चक्रवर्ती ने भी साहित्य-दर्पण में इन्हें रस के प्रकाशक मानकर रति के श्रादि कारण होने से अनुभावों के ही अंतर्गत उल्लेख किया है, पर 'गोवलीवर्दन्यायानुसार' ये पृथक् भी कहे जा सकते हैं। महाराज 'भोज' कहते हैं-सत्त्व का अर्थ रजो और तमोगुण से रहित 'मन' है। इसलिये सत्त्व-योग से उत्पन्न भाव सात्त्विक कहे जाते हैं। कोई-कोई इन्हें 'तन-व्यभिचारी' भी कहते हैं।' अस्तु- भिन्न-भिन्न बरनन करें, इन कों सब कबिराइ । सब ही कों करि एक पुनि देत रसै' ठहराइ॥ लखि बिभाव-अनुभाव ही, चर, थिर-भाबै नक । रस-साँमिग्री जो रमें, रसै गर्ने धरि टेक ।। अथ थाई भाव उदाहरन “कवित्त" जथा-- मंद-मंद गोंने सों गयंद-गति खोने लगी, बोंने लगी बिष सौ अलक अहि छोंने-सी। लंक नबला को कुच-भान दुनोंने लगी, होंने लगी तन की चटक चारु सोंने-सी ॥ तिरछी-चितोंने सों बिनोदन बितोंने लगी, लगी मृदु-बातन सुधा-रस-निचोंने-सी। मोंने भोंने सुंदर सलोंने पद 'दास' लोने, मुख की बँनक है लगन लगी टोंने-सी- पा०-१. (सं० प्र०) रसौ...। २. (सं० प्र०) थिर...। ३. (०नि०) सौ...! (३) सो... ४.(०नि०) मंद-मंद गोंन सों गर्यद-गति खोन लगी, बोंन लगी बिष-सौ अलक अहि छोना-सी । ५: (१०नि०)..कुच नारन दुनों न लगी, होंन लगी तन चटक चारु सोना-सी । (६.सं० प्र०) तिरछे...। ७. (प्र०) लागी...| प. (भा० जी०) बातेंन सों सुधारस... ( ० नि०) तिरछी चिंतोंन सों विनोदन बितांन लगी...सुधारस निचोंना- सी । १०. (३) मोन मॉन.... ११. (X० नि०)...टोना-सी।

  • नि० (मि० दा०) ५० ४४, १३२ ॥ २ ति० (सं०) पृ० २०१। ।