८६ काव्य-निर्णय बिथा जो बिनें सों को उत्तर पैहलेई लहै, सेवा-फल हई रह्यौ या में नाहिं चल है। एक दिन दास' सु तो आयो प्रभु-पास तँन राखे ना पुराँने बास कोऊ एक थल है। करत प्रनॉम सो बिहँसि बोल्यौ यै कहा, कह्यौ कर-जोरि देव सेबा- ई को फल है।. वि०-" रीति-ग्रंथ-कर्त्तात्रों ने 'हास्य-रस-विकृत श्राकार, वाणी, वेश-भूषा और चेष्टा-श्रादि के देखने से उत्पन्न मान 'यात्मस्थ' और 'परस्थ' रूप से दो प्रकार का कहा है। श्रात्मस्थ हास्य वह जो हास्य का विषय देखने मात्र से उत्पन्न हो और 'परस्थ' वह जो दूसरे को हँसता देखकर प्रकट हो-उत्पन्न हो...। इसके संचारी-"चपलता, निद्रा, हप, उत्सुकता, आलस्य, अवहित्य और अश्रु,” स्थायी-'हास', श्रालंबन-'दूसरे की विकृत वेश-भूपा, आकार, निर्लजता, रहस्य-गर्भित वचनावलि, जिन्हें सुनकर हँसो या जाये, 'उद्दीपन'-- हास्य-जनक चेष्टाएँ, विदूषक, नर्म-सचिव, बहु मूर्ति, दुर्वेष,' 'अनुभाव' -श्रोष्ठ, नाक और कपोलों का स्फुरण, नेत्रों का मिचना-खुलना, मुख का विकसित होना,” गुण-'प्रसाद', रीति-'पांचाली,' वृत्ति--'कोमला,' सहचर ग्स-- 'संयोग-शृगार, अद्भुत, शांत, बिभत्स, गैद्र और वात्सल्य तथा विरोधी-रस- 'भयानक' और 'करुण' कहा गया है। माथ ही इसके छह भेद - 'स्मित, हसित, विहसित, अवहसित, अपहसित तथा श्रतिहसित भी कहे गये हैं। इन भेदों का प्राधार हास की न्यूनाधिकता ही है, अन्य विलक्षणता नहीं। ब्रजभाषा के रीति-श्राचार्यों ने इम ( हास्य ) रस के पूर्व में जैसा कहा गया है प्रथम -'उत्तम, मध्यम, अधम,' तदनंतर--'मंद, मध्यम' और 'अति' के बाद ऊपर कहे गये छह भेद भी कहे हैं। ब्रजभाषा में ही नहीं, उसकी जननी संस्कृत ग्रंथों में भी हास्य के रस के चमत्कृत उदाहरणों की कमी है - अति प्रभाव है। यदि कहीं किसो कवि ने पा०-१. (भा० जी० ) औ .. | २. (प्र०) करै .. । ३. ( वे ) ऊतरु। ४. (प्र.) याही सों...। (३) यही तो .. | ५.(प्र०) (३०) रहै .. | ६ (प्र०) हास... । (सं० प्र०) हास-हित आयो । ७ (प्र०) (सं० प्र०) [वे० ] पुराँनों...| प. [सं० प्र०] सेव...।
- र० कु. [ अयो० ] पृ० १२१,४५६ । र० म० [क० पो०, ] पृ० २४६ । का०
प्र० [भानु ] पृ० ४४१,१५ ।