काव्य-निर्णय वह संचारी भाव होगा, स्थायी नहीं। साहित्य-दर्पण में विश्वनाथ चक्रवर्ती इसकी पुष्टिता के प्रति कहते हैं- "न यत्र तुःखं न सुखं न चिंता न द्वेषरागो न च काचिदिच्छा । रस स शांतः कथितो मुनिद्रः सर्वेषु भावेषु शमप्रधानः ॥" अस्तु यहाँ शंका होती है कि यदि इस रस का यह स्वरूप मान लिया जाय तो उसकी स्थिति मोक्ष की दशा में ही होगी और तब वहाँ विभावादि का ज्ञान असंभव हो जायगा, अर्थात् विभाव, अनुभाव और संचारी-भावों के द्वारा उसकी सिद्धि न हो सकेगी। अतएव साहित्याचार्यों ने-ऐसी दशा में कहा है कि युक्त (रूप-रस आदि विषयों से विरक्त ध्यान-मग्न योगी), वियुक्त (योग-बल से अण- मादि संपूर्ण सिद्धियाँ प्राप्त होकर, समाधि की भावना करते ही वाँछित-वस्तुओं का ज्ञान अंतःकरण में जिसे होने लगे) और 'युक्त-वियुक्त' (जिसकी इद्रियाँ महत् और अद्भुत रूपादि प्रत्यक्ष ज्ञान के कारणों की अपेक्षा न कर सब अती- द्रिय विषयों का साक्षात्कार कर सके) की दशा में जो 'शम' वा 'निर्वेद' रहता है, वही स्थायी भाव होकर रस में परिणत हो जाता है और इसी अवस्था में विभावादि का ज्ञान संभव होता है। यहाँ 'मोक्ष-दशा' वा निर्विकल्प समाधि का 'शम' अभीष्ट नहीं है, क्योंकि संसार में जो विषय-जन्य सुख हैं अथवा स्वर्गीय महा सुख है वे तृष्णा के क्षय वा शांति से उत्पन्न सुख के अल्लातिअल्प भाग के बराबर भी नहीं हैं । एक बात और, वह यह कि-श्रीमम्मट ने शांत-रस के प्रति कुछ अन्यमन्यस्ता दिखलाते हुए कहा है-“शांतोऽपि नवमो रसः।" अर्थात् शांत भी नववा रस है, यह 'भी' विचारणीय है। वैसे तो मम्मट-मतानुसार शांत रस की मान्यता है-ही और श्रीभरत मुनि (नाट्याचार्य) संमत है, फिर भी 'अभिनवभारती' कार प्राचार्य अभिनवगुप्त जिन पक्ष-विपक्ष रूप दो बातों का उल्लेख करते हैं, उनका श्रीमम्मट ने स्वागत नहीं किया, अपितु 'अपि' शब्द से उस मत-वैभिन्य की ओर संकेत करते हुए संकित हृदय से उसे स्वीकार किया है। अस्य (सांत रस) उदाहरन 'सवैया' जथा- भूखे अघाँने, रिसाँने, रसाँने, हितू-अ-हिवून सों स्वच्छ मैंने हैं । दुखन भूषन, कंचन-काँच, नौ मृतिका-मौनिक एक गँने हैं। सून सौ फूल, सो माल' प्रबाल सौ, 'दास'हिए सँम सुख्ख सँने हैं। [म के नॉम सों केवल कॉम, ते ई जग जीवन-मुक्त बने हैं। पा०-१. [प्र०][] सो...। २. [२०] साल-पलास सों।
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