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पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/१३६

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“अथ पंचमोल्लासः" रस को अपरांग बरनन 'दोहा' जथा- रस-भावादिक होत जहँ, और'-और के २ अंग । तहँ 'अपरांग' कहैं कोउ, कोउ 'भून' इहि ढंग ।। रसबत, प्रइस', उरजसी, समाहितालंकार । भाव हु'दैवत, संधिवत, और सबलबत-धार ॥ वि० "रम-भावादिक, अर्थात् रसभाव, रसाभास भावाभास अोर भावप्रशम (भाव-शांति) जब किसी के अंग हा जाते हैं, तब ये क्रम से -रमवत् ,प्रेयस, ऊर्जस्वि तथा समाहित अलंकार कहे जाते हैं, यथा--- "रसाभावौ तदाभासौ भावस्य प्रशमस्तथा । गुणोभूतत्वमायांति यदालंकृतय स्तदा ॥ रसवत्प्रेयऊर्जस्वी समाहितमिति क्रमात् ।". -सा० द० (विश्वनाय) पृ० १० । १५-६ अथ रसावंतालंकार 'दोहा' जथा- जह रस को कै- भाव को, अंग होत रस आइ । तहँ 'रसवत' भूषन कहैं, सकल सुकवि समुदाइ ।। विo--"जहाँ कोई रस वा भाव किसी अन्य रस का अंग बन कर पाए तब वहाँ 'रसवदलंकार' कहा जायगा। इस रसवदलंकारों के कई सुंदर उदाहरण दासजा ने क्रमशः दिये हैं।" सांत-रसवंत अलंकार बरनन 'सवैया' जथा- बादि छहों • रस-बिजन खाइबौ, बाद नवों रस-मिस्रित गाइबौ । बादि जराइ'प्रजंक बिछाइबौ, प्रसून घनेन प" पाँइ लुटाइबौ ॥ पा०-१. (प्र०) जुगल पररूपर भग। २. (भा० जी०) को ..। ३. (सं० प्र०) रस- भाबादिक है जहाँ, मान-ऑन के... ४. (सं० प्र०) तहां परांग कहें कोउ, लहि भूषन को ढंग । ५. (प्र०) प्रेया-उरजसी । (भा० जो०)..प्रेयोउरजसी । (प्र०-३) प्रेस, रसवत ऊरजसि ...1 ६. (०) भावो...। ७. (प्र०) सार...। . (प्र०-३) वा...। ६. (भा० जी०) (३०) तिहिं...। १०. (सं० प्र०) (का० प्र०) छयो...। (३०) नवौ...। ११. (प्र०) (भा० जी०) (०) (प्र० मु०) गैयो। १२. (प्र०) (३०) (भा० जी०) जराऊ । १३ (०) (का० प्र०)परि । ५४.(भा० जी०) (३०) (प्र० मु०) लुटैबौ। ( स० प्र०) लठैवी । (प्र०) परिसाथ लुढेवो ।

  • , सं०-प्रयाग, "रस को परांग वर्णन।