पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/१३९

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काव्य-निर्णय वि०-दासजी ने यह सवैया अपने 'श्रृंगार-निर्णय नामक द्वितीय प्रथ में 'सखि-कर्म 'परिहास' के उदाहरण में भी दिया है। सखी-जिससे नायक- नायिका किसी कार्य का गोपन (छिना) नहीं करते, उसे कहा है और उसके-'मंडन शिक्षा, उपालंभ और परिहास (दिल्लगी) श्रादि चार कर्म कहे गये हैं, यथा-- "जासों तिय निज हीय कौ, राखै कछु न दुराव । ताहि बखाँनत हैं मखी, जे रसग्य कबिराव ॥ और कर्म- मंडन, सिच्छा करन पुनि उपालंभ परिहास । गरि काज ए सखिन के, ते सब करत प्रकास ॥ -म. मं० (अजान) उक्त सखि-कर्म ‘परिहास' का उदाहरण 'बेनी' कवि ने भी बड़ा मुंदर सृजा है, जैसे- "साँवरे-गोरे की ओर ते संग, लगै मिलि दामिनी को घुन नीको । नील-निचोल में गोरौ जु गात, निसा अँधियारी में रूप ससी कौ ॥ हो तुम गोरी, भल्यौ मिल्यौ संग, सो साँवरौ अग है मोहन पी को। यों सुनि 'बेनी' जु भोउँन-ऐठि, हँसी भुज-मूल अँठि सखी कौ ॥ -० सं० ( मन्नालाल ) पुनः 'दोहा' जथा- दुर, दुरे तकि दुरि ते, राधे आधे नैन । कॉन्ह-कॅपत' तो दरस ते, गिरि-डुगलात गिरन । अस्य तिलक इहाँ कंप-भाव को संका-भाव अग है, जाते इहा हूँ 'प्रेयस् अलंकार है। वि०-"दासजी के उपयुक्त भाव पर किसी कवि की यह उक्ति- सूझ भी अति सुंदर है, यथा- "भृकुटी कमान-तॉन फिरत अकेली बधू, तापै ए बिसिख-कोर कजल-भरे हैं-री। तोहि देखि मेरे-हू गुबिंद-मन डोल उठे, मघवा निगोदो उतै रोस पकरै है-री॥ पा०-१. (प्र.) (प्र० मु०) (३०) ॐ तुब...। २. (प्र०) डिगलातु... । (प्र०-३) (प्र० मु०) (३०) ढगुलात...।