पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/१४१

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१०६ काव्य-निर्णय अवहित्थ में, जो वचन-वैदग्ध का ही एक स्वरूप है, 'अनपेक्षित काम की ओर प्रवृत्ति, बात बराना, अन्य-अोर देखना श्रादि होता है । नायिका-भेदानुसार दासजी का यह छंद 'अज्ञात यौवना' (जिसे अपने यौवनागमन का ज्ञान नहीं) का उदाहरण माना गया है । अज्ञात यौवना का उदाहरण-"और कवि गढ़िया, 'नंददास' जड़िया" 'ने अपनी 'रस-मंजरी' ग्रंथ में बड़ा मुदर रचा है, यथा-- "सखि जब सर-जन्हबावन जाँहीं, फूले अमलँन-कमलँन-माहीं। पोंछे डारति रोम की धारा, मॉनति बाल सिबाल की डारा । चंचल नैन चलत जब कोने, सरद-कमल-दल-हूँ ते लोंने । तिन्हें स्रबन-विच पकरयौ चहें, अंबुज-दल से लागे कहें । इहि प्रकार बरसै छबि-सुधा, सो "अग्यात जोबना मुग्धा ।" ___ . २० मं० (नंददास) अथवा-- "गाइके अनु-बजाइ उठे, बरु पारसी-देखि सँवारत पागै । याही गलीन-कलीन के उत्तर, पावत है बृषभान के बागै ॥ देह कटीली है कॉपि उठे, वबराइ रहै मन क्यों हूँ न लागे । कोंन को है ये छोहरा साँवरौ, देखत मोहि डरावनों लागै॥" - ० स० अथ ऊरजस्वी अलंकार बरनन- काहू को अंग होत रस, भावाभास जु मित्त । 'ऊरजस्वि' भूषन कहें, ताहि सुकबि धरि चित्त ।। वि.-"जहाँ अनुचित ( बलपूर्वक ) रूप से प्रवृत्ति हुए रसाभास और भावाभास अन्य रसों के अंग (सहायक वा पोपक ) हों वहाँ 'ऊर्जस्वि' अलंकार कहते हैं, क्योंकि ऊर्ज का अर्थ 'ब' होता है।" अस्य उदाहरन 'सवैया' जथा- उधौ, तहाँ-ई चलौ लै हमें, जहाँ कूबरो-कान्ह बस इकठौरी । देखिए 'दास' अघाइ-अघाइ, तिहारे प्रसाद नूपम' जोरी ।। कूबरो सों कछु पाइऐ मंत्र, लगाइऐ काँन्ह सों प्रेम की डोरी। कूबरि-भक्ति बढ़ाइऐ बृद. चढ़ाइऐ चंदन-बंदँन रोरी ॥ * पा०-१. (प्र. ) ( भा० जी० ) ( 0 ) (प्र० मु० ) मनोहर .. | २. ( भा० जी० ) (वे)बंदन चंदन...।

  • र० कु० (अयो०) पृष्ठ ७५.४७३० ।