अथ षष्ठोल्लासः धुनि-भेद बरनन 'दोहा' जथा- बाच्य-अरथ ते ब्यंग में चमतकार अधिकार। धुनि ताही कों' कहत है, उत्तम काव्य-बिचार ।।. वि.--"जहाँ वाच्यार्थ शब्द-जनित अर्थ से व्यंग्यार्थ में अधिक चमत्कार हो, उसे "ध्वनि" कहते हैं । ध्वनि का अर्थ है . "अनुरणन्" (घंटे की टंकार के बाद होने वाली झंकार )। अत व विशेष अर्थ या व्यंग्याथ से जब शब्द या अर्थ अपने स्व अर्थ को त्याग कर कुछ नयी विशेषता (चमत्कार) प्रकट करे उसे- ही विद्वज्जन 'ध्वनि' कहते हैं, जैसा कि दासजी तथा निम्न-लिखित सूक्ति से जाना जाता है, यथा - ____ "यचार्थः शब्दो वा तमर्थबह सर्जनीकृत स्वार्थो । व्यक्त काव्य विशेषः ध्वनिरिति सूरभिः कथितः ॥ रीतिकारों ने ध्वनि में व्यंग्यार्थ की-ही प्रधानता (चमत्कार) मानी है, क्योंकि चमत्कार के उत्कर्ष पर-ही वाच्य और व्यंग्य की प्रधानता निर्भर है। जहां वाच्य में अधिक चमत्कार हो वहां वाच्य की और जहां व्यंग्याथ में अधिक चमत्कार हो, वहाँ व्यंग्यार्थ की प्रधानता समझी जाती है । वाच्यार्थ का तो शन्द के द्वारा कथन किया जा सकता है, व्यंग्यार्थ का नहीं, उसकी तो 'ध्वनि' ही निकलती है। ध्वनि-संप्रदाय के प्राचार्य आनंदवर्धन ने प्रतीयमान अर्थ की महत्ता का गुण- गान करते हुए कहा है- "प्रतीयमानं पुनरन्यदेव वस्त्वस्ति वाणीशु महा कवीनाम् । यत्तत्प्रसिद्धावयवातिरिक्त विभाति लावण्यमिवांगनासु ॥" अर्थात् महा कवियों द्वारा कही गयी वाणी विशेष में वाच्यार्य के अतरिक्त प्रतीयमान अर्थ इस प्रकार प्रकाशित होता है-चमकता है, जिस प्रकार अंगना (स्त्री) के अवयवों ( हाथ-पैर, कान, नुख, नासिका श्रादि) के अतरिक्त उसका 'लाक्स्य। पा०-१, (सं० प्र०) सों...। २, (३०) सो...!
- , व्यं ० मं० (ला० भ० दी०) पृ० २७ ।