पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/१६५

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काव्य-निणय कुछ ऐसी-ही मुहजोर-माजमाई अन्य कवियों की भी मिलती हैं, यथा- "भोर-ही भौन में भावतो आवत, प्यारी चित के इने ग-फेर । याल-बिलोकि के लाल कह्यो, कहो काहे ते लाल बिलोचन तेरे ॥ बोलि उठी बँनिकें तिय बोल, जु 'देव' कयौ यों कोप-करेरे। काहू के रग रंगे दृग रावरे, रावरे रग रँगे दृग मेरे ॥" वि. विविध ( संग्रह ) पुस्तकों में प्रायः इस तीसरे चरण का पाठ- 'बोलि उठी सुनिकें तिय बोल सु 'देव' कहै अति कोप करेरे' लिखा मिलता है, जो उपयुक्त नहीं, क्योंकि यह खंडिता वा धीरा की उक्ति नायक प्रति है, कवि-उक्ति नहीं। साथ ही 'अति' और 'करेरे' भी समानार्थी हैं। इधर एक प्राचीन हस्त-लिखित संग्रह मिला, जिसमें ऊपर लिखा पाठ है, जो अर्थ की दृष्टि से और भाव की दृष्टि से अनमोल है । अथवा- मेरे नैन अंजन, तिहारे प्रधान पर सोभा- देखि गुमर बढायौ सब मखियाँ ! मेरे अधरैन पर ललाई पीक लीक तैसें, रावरे कपोल गोल नोखी लीक लखियाँ ॥ कबि 'हरिजन' मेरे उर गुन-माल तेरें- बिन-गुन माल-रेख देखि-देखि झखियाँ । देखौ लै मुकुर दुति कोंन की अधिक लाल, मेरी लाल चूनरी, तिहारी लाल अँखियाँ ॥" "खुमार-मालूदा आँखें, बल जबीं पर, दर्द है सर में । रहे तुम रात-भर बेचैन किस कंबख्त के घर में n" -दाग प्रौढोक्ति करि अलंकार ते अलंकार व्यंग जथा- मरौ हियौ पखाँन है, तिय हग तीन बाँन । फिरि-फिरि लागत-ही रहैं, उठे बियोग-कृसॉन ॥. अस्य तिलक इहाँ रूपकालंकार ते सँमालंकार व्यंग है, ता सों अलंकार ते अलंकार भ्यंग।

० मं० (ला० भ० दी०) पृष्ठ ४३ ।