१६६ काव्य-निर्णय "ये-ये खंजन मेकमेव कमले पश्यंति देगक्वचित्- ते सर्वे कवयो भवंति सुतरां प्रख्यात भूमीभुजः॥" अर्थात् जो मनुष्य कमल पर बैठे हुए खंजन पक्षी को देख लेता है, वह प्रख्यात् भूमीभुजः--राजा नहीं, महाराजा हो जाता है। अस्तु, यहाँ धर्मलुप्तो- पमा को काव्यलिंग ने संकर स्वरूप से द्विगुणित कर दिया है।" उपमान-लुप्ता जथा-- सुबस-करन बरजोर सखि, चपल चित्त को चोर । सुंदर नंद-किसोर-सौ,२ जग में मिले न मोर ।। वि०-"यहाँ उपमान जिसकी उपमा दी जाय अथवा समता की जाय, लुप्त है, कथन नहीं किया गया है, इस लिये उपमान-लुप्तोपमा है।" बाचक-लुप्ता जथा-- अमल, सजल' घनस्याँम, तँन, तड़ित-पीत-पट चारु । चंद-बिमल मुख-हरि-निरखि, कुल की काहि सँ भारु ।। वि०-“यहाँ वाचक शब्द - 'सा, सी, से वा सौ' का कथन नहीं है, इस लिये 'वाचक-लुप्ता' है।" उपमेइ-लुप्ता जथा- जपा-पुहुप-से अरुन-मइ मुकतावलि-से स्वच्छ । मधुर-सुधा-सी कढति है, तिनते हास" प्रतच्छ । वि०-"यहां उपमेय, अर्थात् वर्णनीय वस्तु श्रोष्ठ, दंत और मुख का वर्णन नहीं, समता नहीं दिखलायी है, अतएव उपमेय लुप्ता है।" बाचक-धरम लुप्ता जथा- लखि सखि-सखि सारस नयँन, इंद-बदन घनस्याम । बिज्जु-हास, दारों दसन, बिंबाधर अभिरॉम ।। वि०-"यहां भी दासजी ने वाचक शब्द--सा, सी, से वा सौ तथा धम (गुण) चंचल, आनंददायक, उज्वल और अरुण का कथन नहीं किया है, अतः वाचक-धर्म लुप्ता है।" पा०-१. (भा० जी०) की...। २. (३०) (मा० जी०) (प्र० मु०) से...| ३ (प्र०-३) कॅमल...| ४. (सं० प्र०) दुति...। ५. (३०) दास.... ६. (सं० प्र०) (०) लखि-लसि... (प्र० मु०) लखु लखि... ७. (भा० जी०) दारिम...।
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