१८६ काव्य-निर्णय उदाहरन जथा- देति सकीया तू पी को सखे, निज काज' बिगारति है मति-मैली। 'दास जू'ए' गुन हैं जिन में, तिन-हीं की रहै जग कीरति फैली ।। बात सही बिधि कीनी भली, तिहि यों ही भलाइन' सों निरमली। कादि अंगारन में गढि गेरें-हुँ, देति सुबासनाँ चंदन--चैली ॥ वि०-"यह माननी नायिका के प्रति मान-मोचन रूप में सखी वा दूती की उक्ति है कि "स्वकीया के विशेषार्थ ( प्रियतम को नित्य-अानंद देने वाली ) का "काज बिगारति है मतिमैली के सामान्यार्थ से समर्थन करने को उपमा और अर्थातरन्यास प्रयुक्त चंदन-चैली के विशेषार्थ से सुंदर समर्थन-अर्थात् क्रोध- छोड़ नायक से मिलने का वर्णन, कितने अच्छे ढंग से किया है। ___एक बात, यह कि इस अलंकार को कुवलयानंद ( संस्कृत ) की भाँति भाषा के अलंकार ग्रंथों में भी स्वतंत्र अलंकार रूप में गणना की गयी है, पर संस्कृत के अन्य अलंकार-सर्वस्त्रादि ग्रंथों में ऐसे उदाहरण अर्थारतन्यास के अंतर्गत-ही बत. लाये हैं । पंडितराज जगन्नाथ ने विकस्वर के उपमा संबंधित पूर्व रूप को उदाहरण अलंकार के और अर्थांतर-रीति से विकसित के द्वितीय रूप को अर्थातरन्यास के अंतर्गत माना है। अस्तु, मुख्यतया यह अलंकार उदाहरण और अर्थातरन्यास के अंतर्गत-ही कहा-सुना जाना चाहिये।" निदरसनाँ अलंकार लच्छन जथा- एक क्रिया ते देति जह, दूजी क्रिया लखाइ। सत-असत हुँ ते कहत हैं, 'निदरसनाँ' कबिराइ ।। सम अनेक बाक्यर्थ कौ, एक कहै धरि टेक। एकै पद' के अर्थ कों, थापै यै वो एक ॥ वि०-"संस्कृत-अलंकाराचार्यों के निदर्शना-लक्षण'के प्रति विविध मत है, फिर भी बहु-मत संपादित रूप से कहा जा सकता है कि संभव-असंभव होते हुए भी पा०-१. (सं० प्र०) देती सुकीय...। २. (सं० प्र०) (३०) निज केती बगारत हू.. । ३. (३०) अवगुन...। ४. (सं० प्र०) (३०) (प्र० मु०) कीन्हों भलौ...५. (म० प्र०) तो हियोई भलाइन सों . । (प्र० मु०) तोहिं...। ६. (३०) भलो इन सों...। .७. (सं० प्र०)... गहि डारे हूँ, देति सुवासता...I (वे.)...गदि गार हूँ, देति सुवासता...। ५. (भा० बी०) सो... (०) को.... ६ (स० प्र०) पद कर अर्थ कै....
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